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बस्तरः जहां संविधान निलंबित है

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (ए.आई.पी.एफ.) के 8 सदस्यीय जांच दल ने 8 जून से 11 जून के बीच छत्तीसगढ़ के चार जिलों (बस्तर, दंतेवाड़ा, सुकमा तथा बीजापुर) का दौरा किया। जांच दल में मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक और समाजवादी समागम के नेता डॉ. सुनीलम, झारखण्ड के पूर्व विधायक और भाकपा(माले) के केंद्रीय कमिटी के सदस्य विनोद सिंह, अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन, ऐक्टू के नेता एवं छत्तीसगढ़ के भाकपा(माले) सचिव ब्रिजेन्द्र तिवारी, पी.यू.सी.एल. के पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव अमलान भट्टाचार्य, छिन्दवाड़ा की अधिवक्ता आराधना भार्गव, कोलकाता के उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अजय दत्त, एवं कोलकाता के अमलेन्दु चैधरी थे. जांच दल बस्तर पर शोध कर रही सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया एवं दंतेवाड़ा की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी के सहयोग एवं भागीदारी के लिए आभारी हैं.

भूमिका

बस्तर आज संवैधानिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रताओं के खुले उल्लंघन का गवाह है. ‘माओवाद से बस्तर को बचाने’ या ‘लोकतंत्र के लिए बस्तर को सुरक्षित करने’ के नाम पर दरअसल संविधान को कुचला जा रहा है ताकि बस्तर को कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए सुरिक्षत किया जा सके और संघ परिवार के लिए बस्तर को शु़) किया जा सके. हर दिन, हर हफ्ते बस्तर के लोगों पर अमानवीय अत्याचार ढाये जा रहे हैं. बस्तर में लोकतंत्र को खोखला किया जा रहा है. इस रिपोर्ट में जिन घटनाओं का उल्लेख है वे कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि वहां के रोजमर्रा के आम जीवन की एक छोटी सी झलक भर हैं.

ऑल इण्डिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) की टीम ने वहां खुद को दो हिस्सों में बांट लिया ताकि सीमित समय में गांवों/लोगों तक जाया जा सके. फिर भी समय की कमी, सरकारी बर्बर दमन और उत्पीड़न के पीड़ितों की भारी संख्या और दूरस्थ गांवों तक जाने के लिए ट्रांसपोर्ट की समस्या के कारण हम कुछ ही घटनाओं की रिपोर्ट यहां दे पा रहे हैं. जगदलपुर में हमारे जांच दल पर इंटेलिजेन्स वालों की कड़ी निगरानी थी. वहां से निकलने से ठीक पहले इनमें से एक ने हमारी गाड़ियों के ड्राइवरों को अलग ले जा कर उनसे पूछताछ की और दबाव डालने की कोशिश की. रास्ते में जांच दल को बार-बार पुलिस और सीआरपीएफ के चेकपोस्ट व कैंम्पों पर रोका गया, तलाशी ली गई, फोटो खींचे गये और कड़ी पूछताछ होती रही. कई बार हमें बताया गया कि हमारी गाड़ी का नम्बर सीआरपीएफ कैंम्प और पुलिस चेकपोस्ट में पहले से दिया गया था और वे पूछताछ करने के लिए हमारा इन्तजार कर रहे थे. जैसे, हमसे पूछा गया कि जगदलपुर से सुकमा पहु्ंचने में आपने पूरा दिन क्यों लगाया ? क्या, आप रास्ते में अन्य गांवों में गये थे. सुकमा के चेकपोस्ट पर पुलिस ने हमारे ड्राइवर पर दबाव डाल कर हम जिन गांवों में घूमे उनका नाम और हमसे बातचीत करने वाले ग्रामीणों के नाम पूछे.

इन सवालों से साफ था कि जो भी गांव वालों से बात करना चाहता है उन्हें शक के नजरिये से देखा जाता है. पुलिस, सुरक्षा बल एवं प्रशासन उन्हें (जांच दल को) ऐसा करने से रोकना चाहते हैं. हम यह दर्ज करना चाहते हैं कि जिन गांव वालों से हमने बात की उनकी सुरक्षा के लिए हम चिन्तित हैं, खासकर इसलिये कि दूसरे जांच दलों से बात करने वाले गांव वालों को अतीत में प्रताड़ना व धमकियां झेलनी पड़ी हैं. हमने कुछ मामलों में ग्रामीणों की सुरक्षा के लिए उनका नाम इस रिपोर्ट में बदल दिया है

हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला

एआईपीएफ टीम ने बस्तर जिले के कई ईसाइयों की गवाहियों को सुना. जिनसे ईसाई अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के संस्थाब) अभियान, आदिवासी गांव में साम्प्रदायिक विभाजन और हिंसा फैलाना, आदिवासियों के लिए बने कानूनों का साम्प्रदायिक दुरुपयोग, और हिन्दुत्ववादी दलों के सामने पुलिस और प्रशासन का झुकना, आदि जमीनी सच्चाईयां सामने आयीं. एक तरह से साम्प्रदायिक फासीवादी दलों का बस्तर और छत्तीसगढ़़ के कुछ इलाकों में दबदबा बन चुका है.

जांच टीम ने सोनसिंह झाली से भी बात की जो वकील हैं और ईसाईयों की प्रताड़ना से जुड़े कई मामलों को अदालत में देख रहे हैं.

करमरी, बड़े ठेगली, बेलर, सिरिसगुड़ा आदि ग्रामों में ‘छत्तीसगढ़ ग्राम पंचायत अधिनियम’ की धारा 129 (ग) के तहत प्रस्ताव पारित कर गैर हिन्दुओं (ईसाई) को रहने, घर बनाने, पूजा घर बनाने से रोका गया है जो कि इस कानून की मूल भावना के खिलाफ है। हालांकि सिरिसगुड़ा और करमरी के ग्रामसभा के प्रस्तावों को उच्च न्यायालय बिलासपुर द्वारा निरस्त कर दिया गया है। (देखें संलग्नक संख्या 1)

पेसा कानून (पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996) में दिये गये अनुसूचित क्षेत्रों में स्वायत्त शासन के अधिकार को लागू कराने के मकसद से छत्तीसगढ़ ग्राम पंचायत अधिनियम की धारा 129 (ग) को आधार बनाया गया है. पेसा में इस बात की गारंटी की गयी है कि ‘अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक ग्राम सभा, लोगों की परम्पराओं और रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधनों और विवाद निपटाने के रूढ़िजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने के लिए सक्षम होगी.’ बजरंग दल और विश्व हिन्दू् परिषद द्वारा इस प्रावधान का आदिवासी परम्पराओं और संस्कृति को हिन्दू धर्म से जोड़ने और गैर हिन्दू  रीतियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है. इसी अधिनियम की धारा 55 में अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अलगाव विस्थापन को रोकने के लिए ग्राम सभा को अधिकार दिया गया है. जिसके तहत नये घर बनाने, बने हुए घरों की डिजाइन बदलने आदि के लिए ग्राम सभा की पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है. इस धारा का दुरुपयोग भी चर्चों, सामुदायिक भवनों आदि का निर्माण रोकने के लिए किया जा रहा है. बिलासपुर उच्च न्यायालय ने 16 अक्टूबर 2015 को एक आदेश में इस तरह की विवेचनाओं को खारिज करते हुए कहा है कि ‘ऐसे विवादित प्रस्ताव धर्म और उनकी आस्थाओं के प्रचार प्रसार के मूलभूत अधिकार के रास्ते में बाधा नहीं बन सकते’ (W.P(C)NO – 1759 of 2014 CG Christian Forum and others Vs. State of CG and others ). (देखें संलग्नक संख्या 2)

‘उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास की चुनौतियां’ विषय पर योजना आयोग के एक्सपर्ट ग्रुप की एक रिपोर्ट के संबंधित भाग (2.11.4) जो पेसा की भावना की व्याख्या करती है, का उल्लेख समीचीन होगा जिसमें कहा गया है कि –

‘पेसा की धारा 4(क) के अनुसार राज्य स्तरीय पंचायत कानून ‘रूढ़िजन्य विधि,’ सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं और समुदाय के संसाधनों की परम्परागत प्रबंध प)तियों के अनुरूप होगा’. पर यहां जाहिर है कि संविधान के प्रावधान और अन्य संबंधित केन्द्रीय व राज्य स्तरीय कानूनों में दिये गये व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार प्रासंगिक हैं और उनकी भावना और लक्ष्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. आपराधिक, सामाजिक और कल्याणकारी दायरे में न्याय संबंधी मामले परम्परागत संस्थाओं पर तथा अनुसूचित क्षेत्रों की ग्राम सभाओं पर बाध्यकारी होंगे. मानवाधिकार और संवैधानिक मूल्य अनुल्लंघनीय हैं और परम्परागत संस्थाओं का कोई भी आचरण इन अधिकारों और मूल्यों के खिलाफ नहीं जा सकता है.’

गवाहियों से मालूम होता है कि पुलिस प्रशासन की भूमिका बहुत ही नाकारा है. कुछ मौकों पर तो पुलिस ने खुल कर बजरंग दल का साथ दिया और ईसाईयों की रक्षा करने से इंकार कर दिया. एक मौके पर पुलिस व प्रशासन गांव के सभी हिन्दुओं और ईसाईयों की सभा को बुलाने के बाद खुद नहीं पहुंचे और संभवतः बजरंग दल को भी अपनी अनुपस्थिति के इरादे की सूचना दे दी, इस तरह परोक्ष रूप से ईसाईयों पर संगठित हमले का मौका दे दिया. कुछ मौकों पर जहां पुलिस और जिला प्रशासन ने दखल दिया भी, वहां उन्होंने कानून और संविधान को सख्ती से लागू करने और बजरंग दल आदि के उपद्रवियों को गिरफ्तार करने के बजाय दिखाने भर के लिए विवाद को तथाकथित तौर पर निपटा दिया गया.

प्रभावितों के बयान
पैस्टर पीलाराम कावड़े, गांव भड़िसगांव, टोकापाल पंचायत, जिला बस्तर
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पैस्टर पीलाराम कावडे

‘मैंने अपनी ही जमीन पर जिसके कागजात मेरे पास हैं, एक प्रार्थना गृह की नींव रखी. पंचायत ने मौखिक रूप से निर्माण करने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र देने से इंकार कर दिया. मैंने उनसे कहा कि अपने आदेश को लिखित में दें. परन्तु उन्होंने कई दिनों तक ऐसा नहीं किया, तब मैंने निर्माण कार्य फिर से चालू करवा दिया. लेकिन मुझे लिखित में सूचना दी गई कि ग्राम पंचायत की बैठक में निर्णय लिया है कि ‘छत्तीसगढ़ ग्राम पंचायत अधिनियम 1993’ की धारा 55 (1) व (2) के तहत भवन निर्माण की अनुमति देने से इंकार किया जाता है क्योंकि भड़िसगांव में हिन्दू धर्म को मानने वाली विभिन्न जातियां हैं तथा इस समाज-समुदाय के लोग गांव में देवी-देवता की रक्षा के लिए माता मन्दिर, भगवान मन्दिर आदि की रक्षा चाहते हैं और गांव में बड़े-बड़े जाति धर्म के लोग निवासरत हैं. यहां तक कि हर वर्ष यहां के दशहरा पर्व में रूप शिला देवी मां शामिल होती हैं. (देखें संलग्नक संख्या 3) उन्होंने सूचना में यह भी लिखा है कि अगर प्रार्थना भवन का निर्माण किया गया तो पंचायत को इसे तोड़-फोड़ कर खाली करने का अधिकार है. हिन्दू ग्रामीणों और पंचायत के नेताओं ने मुझे गांव से बेदखल करने की भी धमकी दी.

25 मई 2016 को एक बूढ़ी ईसाई महिला सरदी बाई की मृत्यु  हुई. बजरंग दल के उकसावे पर हिन्दू ग्रामीणों ने उन्हें दफनाने से हमें रोका. उन्होंने कहा कि ईसाईयों को ईसाई धार्मिक नियमों का पालन करते हुए किसी को दफनाने नहीं दिया जायेगा, सरदी बाई को ताबूत में रख कर और क्रॉस के साथ दफनाने नहीं देंगे. पुलिस के आने और विवाद का निपटारा करने के बाद सरदी बाई को ताबूत में तो दफनाया गया पर बिना क्रॉस के. इसके बाद गांव के 200 ईसाईयों ने एसडीएम, तहसीलदार, पुलिस एवं सरपंच को आवेदन दिया कि ईसाईयों को अलग से कब्रिस्तान की जमीन आवंटित की जाय क्योंकि इन्हें सार्वजनिक कब्रिस्तान इस्तेमाल करने से रोका जा रहा है. सरपंच ने आवेदन लेने से ही मना कर दिया. एसडीएम व अन्य लोगों का अभी तक जबाव नहीं आया है. सरदी बाई के पति सुखदेव नेताम की मृत्यु 6 जून 2016 को हुई और इस बार भी हिन्दू ग्रामीणों ने ईसाईयों को उन्हें ईसाई रिवाजों के साथ दफनाये जाने से रोका और मार डालने की धमकी दी. फिर से पुलिस के दखल के बाद वे दफनाये जा सके. फिर गांव वालों व सरपंच ने धमकी दी कि अगली बार अगर ईसाईयों ने कब्रिस्तान का इस्तेमाल किया तो हम बजरंग दल को बुला देंगे, हम पुलिस, तहसीलदार, एसडीएम आदि किसी को नहीं मानते हैं.

इसी तरह से अन्य गांवों में भी ईसाईयों को मृतकों को दफनाने से रोका गया है. 10 अप्रैल 2016 को धुरागांव गाँव, लोहांडीगुड़ा तहसील के गांववालों ने आवेदन दिया कि ईसाईयों को एक बूढ़ी महिला की मौत होने पर उन्हें दफनाने से रोका गया, इसलिए ईसाईयों को अलग से कब्रिस्तान की जमीन आबंटित किया जाए. (देखें संलग्नक 4)

सोन सिंह झाली, अधिवक्ता

25 जून 2016 को ग्राम आरा, बारियो चैकी, जिला बलरामपुर में बजरंग दल के 25 कार्यकर्ताओं ने छोटू जायसवाल, सोनू गुप्ता, विपिन गुप्ता, छोटू गुप्ता के नेतृत्व में चर्च पर रविवार प्रार्थना के समय हमला किया. उन्होंने चर्च में तोड़फोड़ की और पैस्टर अलविस बारा, उनकी पत्नी तथा तीन अन्य लोगों को पीटा. पिटाई का वीडियो बना कर उसे सार्वजनिक किया गया. (वीडियो जांच टीम को भी दिखाया गया). पैस्टर, उनकी पत्नी एवं जगत दास, महेन्द्र कुमार शांडिल्य और राजेश अगरिया को घसीट कर बारियो चैकी ले गये जहां उन्हें रात भर रखा गया. पैस्टर और उनकी पत्नी को ढाई दिनों तक (5 जून से 7 जून की शाम तक) गैरकानूनी हिरासत में रखा गया. 7 जून को बिना किसी केस के पैस्टर की पत्नी को छोड़ दिया गया. पैस्टर को मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के पास ले जाने के पहले पुलिस प्रोसीक्यूटर के पास ले गए. पुलिस प्रोसीक्यूटर ने पुलिस डायरी थाने में वापस कर दी और धारा बदलकर चालान पेश करने को कहा. हमलावरों के खिलाफ कोई एफआईआर नहीं दर्ज की गई, उल्टे पैस्टर के खिलाफ धारा 295 (क), धर्म परिवर्तन विरोधी कानून की धारा 4, एवं आईपीसी की धारा 502, 504 व 505 के तहत केस दर्ज कर दिया गया. 8 जून तक पैस्टर को जमानत नहीं मिली थी.

ईसाई पैस्टरों के खिलाफ ‘दंगा’ आदि के कई मामले दर्ज हो चुके हैं. ईसाईयों पर हमला करने वालों के खिलाफ कोई भी शिकायत करने पर तुरंत काउंटर कंप्लंेन्ट कर दी जाती है.

पैस्टर जॉन मसीह (उर्फ चुन्नू), गांव करमरी, ब्लॉक बस्तर, जिला बस्तर

पंचायत से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद हम अपने पैतृक जमीन पर ईसाईयों के लिए pastor-johan-masihसामुदायिक भवन का निर्माण कर रहे थे. 26 जून 2015 को मुझे निर्माण के संबंध में पूछताछ के लिए ग्राम पंचायत की बैठक में बुलाया गया. मैंने कहा कि मुझे एनओसी मिल चुका है और मैं सामुदायिक भवन बनाना चाहता हूं क्यों कि ईसाईयों के पास शादी आदि सामाजिक आयोजनों के लिए भवन नहीं है. पंचायत के नेताओं ने मुझसे कहा कि मुझे निर्माण की इजाजत नहीं है, अगर गवर्नर आदि ने मुझे निर्माण का अधिकार दे भी दिया तो वे बजरंग दल को बुला कर मेरी पिटाई करवायेंगे. मैंने फिर भी निर्माण जारी रखा.

जुलाई में बजरंग दल वाले ईसाईयों के खिलाफ जुलूस निकाले जिसमें गांव वालों को शामिल होने का दबाव दिया. उस दिन मेरा बच्चा बहुत बीमार था, इसलिए मैं और मेरी पत्नीे उसे लेकर जगदलपुर अस्पताल गये थे. हिन्दू गांव वालों ने थाने का घेराव किया और एसडीएम को बुलाया जिन्होंने निर्माण रोक दिया. अगस्त 2015 में जब मैंने कलक्टर को सभी कागजात दिखाये तब कलैक्टर ने निर्माण के लिए इजाजत का पत्र जारी किया. 8 सितम्बर को मैंने निर्माण कार्य फिर से शुरू कर दिया. 9 सितम्बर को ग्राम सभा ने सूखा राहत के नाम पर बैठक की और उसके बाद गांव वालों को चैक में इकट्ठा किया. उनमें से कुछ मेरी जमीन पर आये और मुझे निर्माण रोकने के लिए कहा. मैं निर्माण रोक कर उनसे बात करने लगा. शैलेश (उर्फ छोटू, पुत्र सबर सिंह) ने फावड़ा उठाया और मुझे मार डालने की धमकी दी. मैं जान बचाने के लिए भाग गया. पर दो महिलायें लुदरी और फूलो बघेल जो निर्माण कार्य में लगी थीं, को डण्डों और लात-घूंसों से बुरी तरह से पीटा गया. हमें घेर लिया गया और गांव से बाहर जाने से रोक दिया गया. मैंने अपनी पत्नी- को फोन किया जो बस्तर गयी हुयी थी. उसने पुलिस को सूचना दी. स्थानीय पुलिस शुरू में आनाकानी कर रही थी पर बाद में हमारे घर पर आई. हमने घायल महिलाओं को अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेन्स भी बुलाया. टी.आई. ने हमारा एफआईआर फाड़ दिया और अपना ही एफआईआर लिख दिया जिसमें सिर्फ चार हमलावरों के नाम थे और आठ को बचाया गया. जिनका नाम लिखा गया (एफआईआर में) उनकी भी गिरफ्तारी नहीं हुई. वे बाद में कोर्ट में सरेण्डर किये और उन्हें जमानत मिल गई. उसके बाद मैं निर्माण नहीं पूरा कर पाया हूं. मैंने एसडीएम और कलैक्टर को आवेदन दिया पर उसके बावजूद उनके ही आदेश का पालन कराने के लिए उन्होंने जरूरी फोर्स नहीं भेजा. चैकी इंचार्ज सोनवानी नाम के एक शख्स हैं जिन्होंने कह दिया कि एक समुदाय (यानि ईसाई समुदाय) के लोग गांव में बढ़ रहे हैं और इसलिए मैं उनकी रक्षा के लिए फोर्स नहीं भेजूंगा.

28 मई 2016 को हमने सारा दिन अदालत में बिताया. फिर भी बचाव पक्ष के वकीलों ने हमारे बयानों पर सवाल-जबाव ही नहीं होने दिये. मेरी पत्नी ने जब आवाज उठायी, तब जज साहब ने बचाव पक्ष के वकीलों को डांटा कि आप लोग समय बर्बाद कर रहे हो और महिलाओं को सारा दिन अदालत में व्यर्थ ही बिताना पड़ा है.

करमरी उन ग्राम पंचायतों में से है जिन्होंने छत्तीसगढ़ ग्राम पंचायत अधिनियम  की धारा 129 (ग) के तहत प्रस्ताव पारित किया था कि बाहरी धार्मिक प्रचारकों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन और हिन्दू देवी देवताओं व परम्पराओं के खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल को रोकने के लिए करमरी ग्राम सभा गैर हिन्दू धर्मों द्वारा प्रार्थना, सभायें और प्रचार पर प्रतिबन्ध लगाती है. बिलासपुर उच्च न्यायालय ने ऐसे प्रस्तावों को असंवैधानिक करार दिया है. (देखें संलग्नक संख्या 2)

पेस्टर मुन्ने लाल पाल, पूर्व अध्यक्ष, यूनाइटेड चर्च यूनियन एण्ड कब्रिस्तान कमेटी, जगदलपुर

‘जनवरी 2012 में कर्कापाल कब्रिस्तान (जो एक सदी से ईसाइयों के पास है) की दीवार बन रही थी. महापौर ने निर्माण की अनुमति दी थी। 8 जनवरी को जब दीवार लगभग बन चुकी थी, मुझे आयुक्त ने कार्यालय पर बुलाया. मैं वहां पैस्टर जोगेंद्र नायक और पैस्टर राजेश हाबिल के साथ गया. आयुक्त ने बताया कि 16-17 डिस्मिल जमीन पर आप ने अतिक्रमण किया है. मैंने कहा हमारे सचिव के पास दस्तावेज हैं, वे रायपुर गए हुए हैं, जैसे ही आएंगे मैं आपके पास दस्तावेज लेकर आ जाऊंगा। मैंने आश्वासन दिया कि अगर जमीन को नापे जाने पर साबित होता है की अतिक्रमण हुआ है तो हम अतिक्रमण वाले हिस्से को तुरंत खाली कर देंगे। आयुक्त इस बात को मान लिए कि मैं दो दिन में दस्तावेज दिखा दूंगा और हम वापस घर चले आए.

15 मिनट के बाद पटवारी ने मुझे कब्रिस्तान बुलाया। वहां महापौर आदि के साथ बजरंग दल के मानसिंग परमार, कैलाश राठी और विश्व हिन्दू परिषद नेता योगेन्द्र कौशिक जे.सी.बी लेकर उपस्थित थे. हमने कहा कि पहले जमीन की नपाई और दस्तावेजों की जांच तो होने दीजिये, अतिक्रमण साबित होता है तो हम खुद तोड़ देंगे। पर बजरंग दल नेता दीवार तोड़ने लगे और नारा लगाने लगे. जैसे ही उन्होंने दीवार को हाथ लगाया, 100 और बजरंग दल कार्यकर्ता जो पास में इंतजार कर रहे थे, दीवार के पीछे से आ गए और उसे तोड़ डाले. तीन कब्र नेस्तानाबूत कर दी तथा जय श्री राम के नारे लगाते हुये कब्र पर नाचने लगे। जे. सी. बी. से दीवार को साफ कर दिया गया. जो अधिकारी मौजूद थे, उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.

पुलिस ने हमारी कंप्लेंट दर्ज नहीं किया. जब 60 पैस्टर और सैंकड़ों ईसाई विश्वासी बोधघाट पुलिस थाने पर इकठ्ठा होकर दबाव बनाये, तब जाकर मध्यरात्रि के बाद एफआईआर दर्ज हो पाई. हमलावरों को दूसरे ही दिन पुलिस थाने से ही बेल मिल गयी. 10 जनवरी को जगदलपुर में हम लोग एक रैली और धरना किये जिसमें 10000 ईसाई शामिल हुए.

उसके बाद पुलिस ने रैली और धरने के सिलसिले में हम में से बारह लोगों के खिलाफ 5 क्रिमिनल केस दर्ज किये (2 गैर जमानती और ३ जमानती). अदालत में सारे हमलावर जिनके खिलाफ हमने केस किया था, बरी हो गए. ईसाई गवाहों में से एक दबाव में आकर अपने बयान से मुकर गए. अदालत में सिर्फ तीन लोगों के बयान हुए, पुलिस के आई. ओ. (जांच अधिकारी) के बिना बयान दिए ही केस खत्म हो गया.’

सनाउराम गोट्टा, ग्राम – तुमसनार, जिला कांकेर

‘2006 में मेरे गांव के ईसाई विश्वासियों को (जिनकी संख्या तब 7 थी) हिन्दू ग्रामीणों द्वारा पीटा गया. मार्च 2016 में हिन्दू ग्रामीणों ने शीतला मंदिर बनाया और हर ग्रामीण से 500 रुपया चंदा मांगा. हमने कहा कि आप लोग हम ईसाईयों के शादी आदि सामाजिक आयोजनों का बहिष्कार करते हैं इसलिए हम आपको चंदा नहीं देंगे. हमने कहा कि अगर हम आपको चंदा देते हैं तो आपको लिखित में हमें देना होगा कि आप हमारे सामाजिक आयोजनों में आयेंगे और अपने सामाजिक आयोजनों में हमें बुलायेंगे. ये बातचीत दो दिन में दो बैठकों में चली.’

‘जब मेरी दादी मरी थीं तब हिन्दू गांव वालों ने उनके अंतिम संस्कार में आने से मना कर दिया था. वे कई शादियों में भी नहीं आये. फिर उन्होंने 1000 रुपया चंदा मांगा. हमने फिर से कहा कि आप हमें लिखित आश्वासन दीजिये तब हम आपको चंदा दे देंगे. राशन दुकान वाले अनिल कुमार केमरो जो भाजपा नेता का बेटा है के उकसावे पर हिन्दू ग्रामीणों ने ईसाईयों के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर दी. उन्होंने कहा कि हमने उनके देवी-देवताओं का अपमान किया है. तहसीलदार ने मुझे बुलाया और पूछा कि तुम्हारे खिलाफ लिखित शिकायत आयी है, ये लोग कौन हैं. मैंने उन्हें केमरो का नाम बता दिया. हमारे गांव में अब 100 विश्वासी हैं और हम सब पर हमले का खतरा है.’

बामन कवासी, गांव – पारापुर / छिछोरीपारा, ब्लॉक लोहांडीगुड़ा, जिला बस्तर

15 मई 2016 को हमारे गांव के बजरंग दल सदस्यों – मनकू, सन्नाड, मुडा और साइबो ने मेरी बहन कुमली कवासी (उम्र 18 वर्ष) की पिटाई की और आरोप लगाया कि वह जादू-टोना करती है. मेरे पिता मुडा की मृत्यु हो चुकी है, मेरी मां मासो, मेरी बहन और मैं खुद व मेरा छोटा भाई अब छुप कर रहने को मजबूर हैं. मेरी बहन शाम 5.30 बजे घर के पीछे धान कूट रही थी, जब वे आकर उसे मारने लगे. उन्होंने पेट में लात मारी, बाल खींचे और सर पर वार किया. वह बेहोश हो गयी और वे उसे मरा हुआ समझ कर चले गये. उसे 2 हफ्ता अस्पताल में रहना पड़ा. हमसे थाने के मुन्शी ने कहा है कि आप लोग छिपे रहिए, गांव मत लौटिये, इसलिए हम पिछला पूरा महीना घर नहीं लौट पाये हैं. हम दूसरे गांव (नाम नहीं दिया जा रहा) के चर्च में रह रहे हैं.

कुमली कवासी, गांव – पारापुर/छिछोरीपारा,ब्लॉक, लोहानीगुड़ा, जिला बस्तर (अब दूसरे गांव में शरण लिए हुए)

kumli-kowasiएआईपीएफ की टीम कमली से उस गांव में मिल पाई जहां वो शरण लिए हुए है. यह युवती बेहद डरी हुई है. टीम को उसने बताया कि थाने के मुन्शी ने उनके परिवार से पैसा भी लिया है और गांव से दूर रहने को कहा है. उसने कहा कि ईसाई होने के कारण उसकी पिटाई हुई और मारने वाले हमलावर उसी के रिश्तेदार हैं. बजरंग दल अपने ही परिवार वालों पर, जो ईसाई बन गये हैं, हिंसा के लिए भड़का रहा है.

पैस्टर शिवो मंडावी, ग्राम – सिरिसगुड़ा, ब्लॉक टोकापाल, जिला बस्तर

‘हमारे गांव के विश्वासी (ईसाई समुदाय के) का राशन तीन माह से बन्द कर दिया है, क्योंकि विश्वासी देवगुड़ी का चन्दा नही देते, इस कारण राशन कार्ड का सत्यापन भी नहीं किया गया. 16 जून 2014 को खाद्य विभाग के अधिकारी बाजार में राशन लाये. हम सब दो माह के राशन की उम्मीद में थैला लेकर गये. उस दिन सोमवार का बाजार था. खाद्य विभाग के अधिकारी लोग- एक सर और मैडम 2.30 बजे दोपहर से राशन की दुकान पर आकर बैठे. उन्होंने कहा कि सचिव को बुलाओ कि राशन क्यों नहीं दे रहे हो, तो सचिव सरपंच ने कहा हम नहीं जाते, वे स्वयं हमारे पास आयें. सचिव सरपंच, राशन दुकान वाले आदि सभी लोग अन्य ग्रामवासियों के साथ पंचायत भवन में जमा थे. हिंसा की तैयारी में थे. खाद्य विभाग अधिकारी उनके पास गये और सरपंच सचिव से बोले कि आपको हमने ट्रेनिंग दी है, न कि राशन कार्ड का सत्यापन घर-घर जाकर करो? सचिव ने कह दिया कि जो करना है करो, साहब! मैं इस्तीफा देने को तैयार हूँ. गांव वालों ने कहा की ‘हम इन्हें राशन नहीं देंगे क्योंकि ये देवगुड़ी का चंदा नहीं देते.’ खाद्य अधिकारियों ने समझाया कि ‘देवगुड़ी आपका अपना मामला है, इसकी वजह से सरकार द्वारा दिया गया राशन नहीं रोका जा सकता.” तब गांव वाले भड़क गए और अधिकारियों को मारने के लिए कुरसी उठा लिए, अधिकारी जान बचाकर भाग गए. फिर गांव वाले ईसाईयों को मारने लगे, 8 पुरुष (मेरे सहित) और 2 महिलाओं को घायल कर दिए. मुझे डंडे से, लात घूंसे से मारा गया. हम किसी तरह बच गए और 108 नम्बर (एम्बुलेंस) को फोन से बुलाये पर रास्ते में पत्थर डाला गया और एम्बूलेंस अस्पताल नहीं पहुँच पायी। जगदलपुर डी.आई.जी. के फोन करने पर पुलिस ने रास्ता साफ किया और लोहानिगुडा प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र ले गए जहाँ हम एक हफ्ते तक भरती रहे. एक आयतु जिसका हाथ टूटा था, को जगदलपुर महारानी हॉस्पिटल ले गए.’

‘17 मई 2014 को ग्राम सभा ने प्रस्ताव पास किया कि गैर हिन्दू गाँव में नहीं रह सकते इत्यादि. हमें ये सब अखबार से पता चला, क्योंकि हम तो हॉस्पिटल में थे. पुलिस एफआईआर दर्ज करवाने हमारे पास नहीं आई, हम तभी एफआईआर दर्ज करा पाए जब हमारी तबियत खुद थोड़ी सुधरी और हम पैस्टर भूपेंद्र खोरा के साथ पुलिस थाने गए. 12 ईसाईयों के खिलाफ भी एक केस दर्ज है, बजरंग दल द्वारा. बिलासपुर उच्च न्यालालय ने ग्राम सभा के प्रस्ताव को असंवैधानिक करार दिया है.’

पैस्टर अभिमालिक, गाँव – मधोता, थाना भानपुरी, जिला बस्तर

‘19 अक्तूबर 2014 को 30-35 बजरंग दल के लोग चर्च में घुस कर ईसाई विश्वासियों को पीटे, जिसमें महिलाएं और बच्चे भी थे. (देखें संलग्नक संख्या 5) उनसे कहा कि ‘हिन्दू बन जाओ वर्ना तुम्हारी हत्या कर देंगे.’ पीड़ित लोग मुझे बुलाये और मैं उनके साथ जगदलपुर जाकर TI को ज्ञापन दे आया. TI गाँव गया, और उसने आश्वासन दिया कि गाँव में 25 अक्तूबर को बैठक बुलाकर समझौता करवाया जाएगा.’

‘25 अक्तूबर को बैठक बुलाया गया, TI और SDM के पहुँचने की बात थी और गाँव के करीब 400 हिन्दू जिसमंे बजरंग दल के लोग भी थे और 70-75 ईसाई इंतजार कर रहे थे. 2.30 बजे तक पुलिस प्रशासन नहीं पहुंचा था. बजरंग दल के लोगों को हो सकता है उन लोगों ने फोन पर सूचना दे दिया हो कि हम लोग नहीं आयेंगे. तब बजरंग दल ने पूरी ताकत के साथ ईसाईयों पर हमला कर दिया, उन्हें जंगल में या मकई के खेत में जाकर छिप जाना पड़ा, कई लोग घायल हो गए. हम लोगों ने संजीवनी (एम्बुलेंस) को फोन करके घायल लोगों के पास भेजा, पर 400 लोगों की भीड़ ने एम्बुलेंस को गाँव में घुसने से रोक दिया, कहा कि ये लोग घायल नहीं हैं, एम्बुलेंस नहीं जायेगी. आधे घंटे के बाद जब घायलों ने बताया कि एम्बुलेंस नहीं पहुंची है तब हमने हॉस्पिटल को फोन किया, उन्होंने कहा कि एम्बुलेंस तो यहाँ से गयी है. एम्बुलेंस के ड्राईवर का नंबर लेकर हमने फोन किया तो उसने बताया कि मुझे गाँव में घुसने से रोका गया है. फिर हम पुलिस कंट्रोल रूम रायपुर में फोन किये. जिन्होंने बस्तर पुलिस को आदेश दिया, फिर पुलिस ने रास्ता साफ किया और 12 घायलों को हॉस्पिटल लाया गया. शनिवार का दिन था, घायलों का कोई इलाज नहीं हुआ क्योंकि हॉस्पिटल के डीन पर बजरंग दल द्वारा दबाव डाला गया. सोमवार को बिना कोई इलाज के सिर्फ पट्टी बाँध कर घायलों को छोड़ दिया गया. हमें pastor-abhimalikजगदलपुर के प्राइवेट हॉस्पिटल में घायलों का इलाज करवाना पड़ा.’

‘2 ईसाईयों को जेल हुआ और 5 बजरंग दल वालों को. गिरफ्तार लोगों को छुड़ाने हम बस्तर चैकी गए, वहां शाम 5 बजे तक हमारा आवेदन नहीं लिया गया, और उसके बाद तहसीलदार ने कहा कि धारा 151 वाले मामले में सिर्फ SDM ही कुछ कर सकते हैं. SDM जानबूझ कर छुट्टी ले लिए थे. इसलिए ईसाईयों को तीन दिन तक जेल में रहना पड़ा, जब तक उनकी जमानत नहीं हुई. केस शुरू होने के बाद, बजरंग दल के लोगों ने फिर हम लोगों के खिलाफ एक और FIR किया, जिसमें उन्होंने कुछ पीड़ितों को ही ‘फरार’ बता दिया. एक वकील ने हमें इस बात की सूचना दी और हम लोग उनके लिए अग्रिम जमानत ले पाए.’

‘ईसाईयों से कहा गया कि आप लोग बोर वेल से पानी नहीं ले सकते हैं, ये पानी हिन्दुओं के लिए है. नवम्बर 3, 2014 को कलक्टर के दफ्तर पर बैठक बुलाई गयी जिसमें बजरंग दल के नेता और ईसाई समाज के प्रतिनिधि थे. बजरंग दल ने कहा कि ईसाईयों को घर वापसी करना होगा. कलक्टर ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर उन्होंने कहा कि ग्राम पंचायत अधिनियम के धारा 129 (ग) में घर वापसी का प्रावधान है.’

                                कांकेर जिला में वनाधिकार का हनन

प्रभावितों के बयान

रामकुमार दर्रो, ग्राम – कोहचे, थाना अन्तगढ़, जिला कांकेर

‘ग्राम सभा से कोई प्रस्ताव नहीं लिया, ग्राम सभा या पंचायत में किसी परियोजना की जानकारी नहीं दी गई, बिना गाँव वालों को बताये ही 25 हैक्टेयर जमीन अनुविभागीय अधिकारी ने कम्पनी वालों को (रावघाट माइंस के लिए) आबंटित कर दी। कहने के लिए रावघाट माइंस व बाँध, रेल लाइन आदि सब भिलाई स्टील प्लांट के लिए है, पर माइनिंग निजी कम्पनियाँ करेंगी. जीवन उपयोगी पेड़ काट दिये है. 40-50 साल से जिस जंगल की जमीन पर गांव वाले काबिज है, उस जमीन को छीना जा रहा है. श्मशान घाट और हम आदिवासियों के देवी देवता की जगह नष्ट की जाएगी. हर किलोमीटर पर ब्त्च्थ् कैंप लग गया है. रेलवे ट्रेक बीच बस्ती के अन्दर से निकाला जा रहा है और सरकार ये कह रही है कि रेलवे ट्रेक के दोनों तरफ 5-5 किलोमीटर तक कोई बस्ती नहीं है।’

‘मैं रावघाट पहाड़ी में गया था जहाँ माइनिंग होना है, हमारे देवी-देवता वाली जगह को जीपीएस से चिन्हिंत करने और उनकी तस्वीर खींचने (हम पेड़, पत्थर आदि को पूजते हैं, इन्हें अगर हमने निशान नहीं लगाया तो कंपनी वाले पहचान भी नहीं पाएंगे). मेरा मोबाईल छीन कर कम्पनी के लोगों ने डिलीट कर दिया और मुझे दो थप्पड़ मारे.’

‘पिछले दो साल से मैं सामुदायिक वनाधिकार और व्यक्तिगत वनाधिकार का काम कर रहा हूँ. मैंने अन्तगढ़ ब्लाॅक में वन अधिकार कानून के अन्तर्गत 1200 आवेदन पत्र दिये, वे सब निरस्त कर दिये गए….लगता है SDM, तहसीलदार आदि वनाधिकार कानून को जानते भी नहीं हैं, वे सामुदायिक वनाधिकार का मतलब ही नहीं समझते!’

BSP के टाउनशिप और रेल लाइन के लिए ैक्ड ने गाँव के लोगों को डरा धमकाकर 30-35 लोगों के हस्ताक्षर करा लिए पर बाद में गाँव वालों ने विरोध किया. गांव में ‘रावघाट माइंस’ के लिए बाँध बनाने की भी चर्चा चल रही है, बाँध से विस्थापन का भी भय है।’

Ramkumar-Darroनंदिनी सुन्दर, विनीत तिवारी और संजय बराते वाली जांच दल जब हमारे गाँव में आई थी (मई 2016 में), तो मैं उनको घुमाया था. बाद में जब मैं किसी पर्व के लिए बाहर गया हुआ था, तब पुलिस मेरे घर आई थी, मेरे बहन से कहा कि मैं आऊँ तो मुझे थाने भेज दें. उन्होंने अपनी कोई आइडेंटिटी भी नहीं दिखाया, न ही कोई वजह बताया. जब मैं लौटा तो मैं थाना गया और मुंशी से और मेरे पहचान के एक पुलिस वाले से पूछा कि क्या बात है. वे मुझे मोटरसाइकिल से SDPO (खालको नाम के कोई हैं) के पास ले गए, जिन्होंने मुझे पूछा कि मैं जांच दल को कहाँ कहाँ घुमाया था. उन्होंने मुझे कहा कि नंदिनी सुन्दर, विनीत तिवारी, संजय बराते सब ‘नक्सली’ हैं और उनसे मिलोगे तो मैं तुम्हे जेल में डाल दूंगा. पर मैं ऐसे फर्जी केस से नहीं डरता हूँ.’

एस. पी. ओ. द्वारा आदिवासी महिला का बलात्कार

कांकेर के एक ग्रामवासी (उनका नाम और परिचय हम गुप्त रख रहे हैं) ने हमें बताया कि एक ैच्व् ने उनकी बेटी का बलात्कार किया, जिससे उसे बच्चा भी हुआ. वे जब बेटी के साथ थाने पर रिपोर्ट लिखाने गए तो पुलिस ने केस दर्ज करने से इनकार कर दिया और ‘समझौता’ करवाया, जिसके अनुसार ैच्व् (जो शादीशुदा है और जिसके बच्चे हैं) 50,000 रूपये देंगे पर अब तक वह 25000 ही दिया है. पिता और बेटी भय के मारे बलात्कार के मामले को उठा नहीं पा रहे हैं.

                                                       फर्जी मुठभेड़

ग्राम – नागलगुड़ा, पंचायत – वांकपाल,
थाना – गादीरास, तहसील, कुआकोंडा, जिला दंतेवाड़ा   

पुलिस का दावा है कि चार महिला माओवादियों – रामे, पांडे, सन्नी, और मासे को यहाँ 21.11.2015 को सात बजे सुबह मुठभेड़ में मारा गया. गांव वालों ने बताया कि मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी. वे 4 महिलाएं माओवादी थीं, जिन में से दो ही माओवादी वर्दी पहनी हुई थी. वे सब गाँव में किसी विवाद को निपटाने आई थी और गांववालों से बर्तन मांगकर खाना पकाने बैठी थीं. गाँव को पुलिस ने घेर लिया था और ये महिलाएं भागने की कोशिश की. एक को दूर से ही ग्रेनेड फेंक कर मार दिया. दो महिलाओं ने सरेंडर कर दिया पर उन्हें भी गोली मार कर हत्या कर दी गयी. बदरू नामक व्यक्ति ने एक महिला के साथ बलात्कार किया और उसके बाद उसकी गोली मार कर हत्या कर दी गई. बदरू पहले माओवादी था फिर आत्म समर्पण करने के बाद प्रधान आरक्षक बना दिया गया है, वह फोर्स के साथ आया था। (इस फर्जी मुठभेड़ के गवाह के नाम और परिचय को गाँव वालों के कहने पर, उनकी सुरक्षा के लिए गुप्त रखा जा रहा है).Bastar-Where-The-Constitution-Stands-Suspended--HIN-7

मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइन के अनुसार जवानों को मुठभेड़ के लिए इनाम मिलना मना है. इसके बावजूद इस ‘मुठभेड़’ के लिए 22 जवानों को मैडल और प्रमोशन मिला. (देखें संलग्नक संख्या 6)

अर्लमपल्ली, तहसील दोरनापाल, जिला सुकमा

बयान

दुद्धी बंडी, दुद्धी भीमा के पिता

‘पिछले साल 3 नवम्बर को मेरा बेटा दुद्धी भीमा (उम्र 23) गाँव के नजदीक जो जंगल है उसमें गाँव के और दो लड़कों – सोढ़ी मूया (उम्र 21) और वेट्टी लच्छू (उम्र 19) के साथ ‘छिंद’ (खजूर रस से बना हुआ मादक पेय) पीने गया था. वे सब दो साइकिल लेकर गए थे. ‘छिंद’ पीने के बाद वे पोलमपल्ली बाजार जाना चाहते थे, जहाँ मेरी पत्नी मेरे बेटे का इंतजार कर रही थी. गाँव के पास जो नाला है, वहां सोढ़ी मूया साइकिल से उतर गया, बाकी दोनों आगे निकल गए. सुरक्षाबल वहां घात लगाये हुए थे, उन्होंने दोनों लड़कों को पकड़ा और पीटने लगे. इसे देख कर सोढ़ी मूया भागने लगा और पुलिस ने उसे गोली मार कर उसकी हत्या कर दी. इसके बाद पुलिस ने भीमा और लच्छू से उनके दोस्त के शव को पोलमपल्ली थाने तक उठवाया. वहां पिक-अप गाड़ी में शव रखवाकर, पुलिस ने भीमा और लच्छू को भी गोली मार दिया.’Bastar-Where-The-Constitution-Stands-Suspended--HIN-8

वेट्टी अड़मा, वेट्टी लच्छू का छोटा भाई

‘मैंने अपने भाई और भीमा को सोढ़ी मूया के शव को पोलमपल्ली के रास्ते पर उठाकर ले जाते हुए जिंदा देखा. दूर से मैंने उन्हें पिकअप गाड़ी में शव को रखते हुए देखा. फिर पुलिस ने लच्छू और भीमा को बाँध दिया और उनको गोली मार दिए.’

सोढ़ी बुदरा, सोढ़ी मूया के पिता

‘अब तक कोई एफआईआर नहीं हुआ है. हमें नहीं पता है कि मजिस्ट्रेट वाली जांच हुई है या नहीं. हम रायपुर और दिल्ली गए थे राजनीतिक नेताओं से मिलने के लिए.’

टिप्पणियां

सीपीआई और स्थानीय कांग्रेस विधायक ने अर्लमपल्ली फर्जी मुठभेड़ के सवाल को उठाया भी. अन्य गांव वालों ने टीम को बताया कि सलवा जुडूम के समय 2006 में अर्लमपल्ली को निशाना बनाया गया था. महेंद्र करमा खुद राम भुवन के साथ यहाँ आये थे और गाँव को लूटने और 135 घर जलाने में जुडूम का नेतृत्व किये थे. ‘हमें एक भी पैसा मुआवजा नहीं मिला,’ गाँव वालों ने कहा. उन्होंने बताया कि अब तक अर्लमपल्ली गाँव के कुल 11 लोगों की पुलिस द्वारा हत्या हुई है. माड़वी लखमा ने बताया कि उनका भाई माड़वी जोगा को 2008 में फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था, जब वह खेत में काम कर रहा था, उनकी बहन का पुलिस ने बलात्कार किया था और 2008 में एक महिला की पुलिस ने गोली मार कर हत्या कर दिया था. सोढ़ी मासा ने कहा कि उनका भाई सोढ़ी देवा को 2006 में पुलिस ने गोली मार कर हत्या कर दिया था. माड़वी लखमा की बहन के बलात्कार जैसे मामलों को, जिसे गांववालों ने रायपुर जाकर उठाया था, भी न्याय नहीं मिल पाया है. गांव वालों ने कहा,  ‘हमें इन मामलों को उठाने में डर लगता है, जब पुलिस ही हत्या-बलात्कार कर रही है तो इनके खिलाफ पुलिस में केस कर के क्या फायदा?

ग्राम – पालामड़गू, तहसील, दोरनापाल, जिला सुकमा
दो बच्चियों की निर्मम हत्या

दिनाँक 31 जनवरी 2016 के दैनिक भास्कर में खबर छपी थी. देखें संलग्नक संख्या 7 या ( http://www.bhaskar.com/news/CHH-OTH-MAT-sukma-news-024004-3516841-NOR.html?seq=1) ‘भागते हुए नाले में गिरीं दो नक्सली, फोर्स ने किया ढेर’, जिस में पुलिस के हवाले से लिखा था कि 30 जनवरी 2016 को ‘पालामड़गु के जंगलों में हुए मुठभेड़ में पुलिस ने दो महिला माओवादियों को ढेर कर दिया। मारी गई महिला नक्सलियों की शिनाख्त वंजाम शांति व सरियम पोज्जे के रुप में की गई है। मुठभेड़ स्थल से दो महिला माओवादियों के शव के अलावा दो भरमार बंदूक, दो देशी कट्टा, देशी ग्रेनेड, इंसास व एसएलआर के राउण्ड, डेटोनेटर, नक्सल साहित्य समेत अन्य दैनिक उपयोगी सामग्री पुलिस ने बरामद किया है।’

अखबार में एएसपी संतोष सिंह का बयान है कि ‘शुक्रवार को सेंट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो व छत्तीसगढ़ एसआईबी से पालामड़गु गांव के आसपास बड़ी संख्या में माओवादियों की मौजूदगी की सूचना मिली। जिसके बाद शनिवार अलसुबह डीआरजी व एसटीएफ जवानों की टुकड़ी पालामड़गु की ओर रवाना हुई। माओवादियों ने 13-14 वर्ष की आयु के तीन बच्चों को संतरी की ड्यूटी में तैनात किया था। जवानों ने बड़ी ही होशियारी से पहले तीनों बच्चों को अपने कब्जे में लिया। जिसके बाद माओवादी की ओर बढ़े। पालामड़गु नाले के पास जवानों को देख माओवादियों ने फायरिंग शुरु कर दी। जवानों ने भी माओवादियों पर जमकर गोलीबारी की। नक्सली फायरिंग करते हुए पालामड़गु नाले को पार कर जंगल की ओर भागने लगे। इसी दौरान दो महिला माओवादी जो साड़ी पहनी हुई थी वह नाले में गिर गई। महिला नक्सली भाग नहीं पाई। मुठभेड़ में जवानों ने दोनों महिला माओवादियों को मार गिराया।’

mother-of-vanjam-shanti-at-palamadguसवाल उठता है कि अगर ‘दो महिला माओवादी’ नाले में गिर गए थे तो उन्हें पकड़ने के बजाय मारा क्यों गया? और तो और, दोनों ‘महिला माओवादी’ साड़ी क्यों पहनी थीं, जबकि माओवादी महिलाएं यूनिफार्म पहनती हैं ? अखबार में शव के जो चित्र छपे हैं, उनमें मालूम होता है कि दोनों ही बहुत कम उम्र की लड़कियां हैं. अखबार में यह भी लिखा था कि ‘दबी जुबान में ही सही पर इलाके में चर्चा रही कि मारी गई महिलाएं स्थानीय ग्रामीण हैं। महिलाओं की वेशभूषा भी काफी सामान्य है, आमतौर पर नक्सली ऐसी पोशाक में नहीं रहते हैं। वहीं उनकी गतिविधियां भी सामान्य बताई जा रही हैं।’

जांच टीम वंजाम आड़े से मिली, जो वंजाम शांति की माँ है. वे कुछ देर काठ की तरह खड़ी रहीं, फिर फफककर रोने लगी, और बहुत कुछ बोल नहीं पायीं. उन्होंने बताया कि मेरी बेटी वंजाम शांति 13 साल की थी, वह सुबह करीब 7 बजे मुर्गी छोड़ने के लिए अपने खेत पर 14 वर्षीय सरियम पोज्जे के साथ गई हुई थी। गांव, जंगल के किनारे है, जंगली जानवर मुर्गीयों को रात में खा लेते है, अतः एक गड्ढा बनाकर उसमें गाँव के लोग अपनी मुर्गीयों को रखकर बाहर से ढ़क देते है। सुबह होने पर मुर्गीयों को गड्ढे से बाहर निकाला जाता है। दोनों बालिकाएं मुर्गी को छोड़कर नदी में नहाकर घर वापस लौट रही थीं इस कारण अपने नहाने के कपड़े भी साथ में लेकर गई थीं. सुबह 08 बजे खबर लगी की मेरी बेटी को पुलिस ने गोली मार कर हत्या कर दिया है. उन्होंने बताया कि मेरी बेटी का माओवादियों से कोई सम्बन्ध नहीं था. मृतक बालिका सरियम पोज्जे के पिता सरियम देवा ने भी यही कहा.

father-of-siriyam-pojje-at-palamadguगाँव के एक लड़के वंजाम भीमा ने बताया कि 30 जनवरी की भोर में उसे तीन और लड़कों के साथ (जो उम्र में उससे बड़े थे) पुलिस ने उठा लिया और थाने में 18 दिन तक रखा. वंजाम गंगा को भी पुलिस ने उठाकर 18 दिन थाने में रखा था. उन्होंने कहा कि गाँव का एक युवा मड़कम उंगा दोरनापाल थाने में पुलिस में भरती हो गया है। और पुलिस को लेकर गाँव में आता है और गांव के लोगों को जेल भिजवाता है। हमारे गाँव के चार लड़के जेल में है जिनके नाम 1. पोड़याम बन्डी 2. मड़कम चन्दा 3. मड़कम सोम 4. कोड़याम कोसा, चारों लड़के 4 माह से जेल के अन्दर हैं।

गांव वालों की बात से बिलकुल साफ है कि दो छोटी बच्चियों की हत्या हुई है और इस निर्मम हत्या को महिला माओवादियों के साथ ‘मुठभेड़’ बताया जा रहा है.

कडे़नार गाँव, जिला बीजापुर:

पुलिस के वेबसाइट पर 21 मई 2016 के प्रेस विज्ञप्ति में दावा है कि ‘दो हार्ड कोर माओवादी को बीजापुर में मारा गया’ (देखें संलग्नक संख्या 8 या http://www.police.gov.in/content/press-release/two-hard-core-maoists-were-neutralized-in-bijapur.php). प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि ‘सी.आर.पी.एफ. का कोबरा बल और राज्य पुलिस के एक संयुक्त ऑपरेशन का पी.एस गंगलूर, जिला बीजापुर, छत्तीसगढ़ के ग्राम चेरकांटी और कड़ेनार के इलाके में 30-35 माओवादियों के साथ मुठभेड़ हुआ. प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार माओवादियों ने फायरिंग शुरू किया और सुरक्षा बल ने जवाब दिया. प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार जब फायरिंग समाप्त हुई, तो इलाके की छानबीन हुई. छानबीन के दौरान, 2 मृत माओवादियों का शव मिला, जिसमें एक यूनिफार्म पहनी हुई महिला का शव भी था. महिला माओवादी की पहचान दरभा एल.ओ.एस. सदस्य ताती हपका के रूप में हुआ है. पुरुष के शव की शिनाख्त कांगेर वैली दरभा एल.ओ.एस के कमांडर मनोज हपका के रूप में हुई है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से 5 लाख रूपये का इनाम घोषित है. मनोज हपका कई घटनाओं में मिला हुआ है, जिनमें चर्चित हैं. 25 मई 2013 की जीरम घाटी की घटना जिसमें कांग्रेस के कई बड़े नेताओं सहित 28 लोग और कई पुलिस के लोग माओवादियों द्वारा एक दुस्साहसी हमले में मारे गए थे.’house-of-manoj-and-pandi

इस प्रेस विज्ञप्ति से सवाल खड़ा होता है कि 30-35 माओवादियों के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले 2 लोग पति-पत्नी कैसे निकले?  एआईपीएफ की टीम कड़ेनार गाँव पहुंची, जहाँ गांव वालों ने हमें बताया कि मारे जाने वाले लोग मनोज हपका और उनकी पत्नी पांडी हपका/पांडी तांती हैं, जो पांडी की माँ और भाइयों के साथ थोड़ी दूर पर गाँव के एक टोले में रहते थे. सभी गांव वालों ने बताया कि मनोज और पांडी को सुरक्षा बल ने अपने घर से उठाया था, जब वे खाना खा रहे थे, और उनकी हत्या कर दिया. मनोज और पांडी को नदी के उस पार चेरकांटी गाँव में दफनाया गया है. जहाँ मनोज का जन्म हुआ था. टीम के कुछ सदस्य गाँववालों की मोटरबाइकों पर मनोज के गाँव गए और पांडी के घर भी गए. टीम के साथ दैनिक प्रखर समाचार की पत्रकार पुष्पा भी थीं, जिनके पास पोस्टमोर्टम के बाद मनोज और पांडी के शव की तस्वीर भी थीं.

प्रभावितों के बयान
चेरकांटी गाँव के एक ग्रामीण (नाम गुप्त):

‘मैं मनोज को उसके बचपन से जानता हूँ, मैंने उसे बड़े होते हुए, शादी करते हुए देखा. मनोज और पांडी एक साल के लिए माओवादियों के साथ घूमे थे, पर क्या मालूम क्यों उनका मन बदल गया, और वे पांच साल पहले लौट आये, और तबसे वे गाँव में ही रहकर खेती कर रहे थे. जो लोग ईमानदारी से मेहनत करके रोटी कमा रहे हैं, उनकी पुलिस ने हत्या क्यों कर दिया?’

बोधि मड़ियम, मनोज के चाचा, गाँव चेरकांटी:

bather-of-pandi‘मनोज और पांडी को अपने घर से खाना खाते वक्त रात के आठ बजे पुलिस द्वारा उठा लिया गया. पांडी पिछले पांच वर्ष से टीबी से पीड़ित थी. उन दोनों की पुलिस ने बेरहमी से हत्या कर दी. दोनों के पैर चाकू से गोदने के निशान से भरे थे. मनोज का पैर टूटा हुआ था और उसकी गोली मार कर हत्या की गई थी. मनोज और पांडी एक साल तक माओवादियों के साथ थे पर वे लौट गए थे और पिछले पांच साल से कड़ेनार में पांडी के मायके में रह रहे थे. हमने अपने रिवाजों के अनुसार उनके शवों को जलाया और फिर अवशेषों को यहाँ चेरकांटी में दफना दिया.’

तांती रामुना, पांडी तांती का भाई, ग्राम कड़ेनार:

‘हम (मेरा भाई, मैं, हमारे बच्चे, पांडी, मेरी माँ और मनोज) 21 मई को रात के आठ बजे खाना खाने बैठे थे. पुलिस हमारे घर में घुस आई, मनोज के हाथों को एक तौलिया से बाँध कर उसको बाहर ले गए, और उसके हाथों को, जिस पर खाना लगा हुआ था, धो दिए. उन्होंने पांडी को भी बाहर निकाला. हमारी माँ को कहा कि उनके कपडे, बर्तन आदि एक पोटली में बाँध कर दें. माँ से कहा कि वह सुबह गंगलूर थाना आ जाएँ. अगली सुबह 7 बजे जब वह थाना पहुंची तब उसको बताया गया कि दोनों को मार दिया गया है और उनके शव बीजापुर पुलिस लाइन में हैं. घर छोड़ते समय मनोज हाफ-पैन्ट और टी-शर्ट पहना हुआ था और पांडी लहंगा, ब्लाउस और तौलिया पहनी हुई थी. पुलिस ने मुझे, मेरे भाई रथु और हमारे एक युवा चचेरे भाई को भी मारा-पीटा. अगले दिन जब मैं धान कूटने के लिए चेरपाल गया तब मुझे हत्या का पता चला और मैं भी बीजापुर पुलिस लाइन चला गया.’

तांती बंडी, पांडी की माँ, ग्राम कड़ेनार 

mother-of-pandi‘वे लोग मनोज और पांडी को ले गए, उनके साथ उनके कपड़े लत्ते और 13000 रुपये भी ले गए, जो मनोज और पांडी आंध्र प्रदेश में मिर्ची काट कर कमाए थे. पांडी बहुत पतली थी और टी बी से ग्रस्त थी, इतनी बीमार थी कि उसके बच्चे नहीं हो सकते थे. पिछले एक महीने से उसके पेट में बहुत ज्यादा दर्द था, जिसके इलाज के लिए वह पी.एच.सी गई थी. वह और मनोज माओवादियों को छोड़ कर पांच साल पहले गाँव लौट आये थे. पांडी इतनी बीमार थी, वह कैसे माओवादियों की सेना में हो सकती थी?’

अन्य तथ्य

टीम ने चेरपाल प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पी.एच.सी) जाकर वहां डॉ डी.के. पटेल से मुलाकात की. उन्होंने कहा कि टी.बी. मरीजों को नियमित दवाई या तो मितानिन गाँव में ही पहुंचती है या फिर मरीज बीजापुर के अस्पताल में खुद जाकर लेते हैं. पी.एच.सी में टी.बी. मरीजों का इलाज नहीं होता है. उन्होंने कहा कि चेरपाल पी.एच.सी. में कड़ेनार गाँव से बहुत कम ही मरीज आते हैं. लेकिन उन्होंने पी.एच.सी के अप्रैल-मई महीने के ओ.पी.डी. रिकॉर्ड को देखा और पाया कि 23 अप्रैल 2016 में एक एंट्री है कि कड़ेनार गाँव की एक 30 वर्षीय महिला ‘पेड्डी तांती’ का दस्त के लिए इलाज किया गया था. डॉक्टर ने माना कि एंट्री करते समय मरीजों के नाम में अकसर कुछ गलतियाँ हो जाती हैं, क्योंकि मेडिकल स्टाफ गोंडी भाषा नहीं बोल पाते और उनको ग्रामीणों की बातों को समझने में कठिनाई होती है. इसलिए यह माना जा सकता है कि इस एंट्री में पांडी तांती का ही जिक्र है.

bodies-of-manoj-and-pandi-in-wich-knife-marks-on-manoj-legs-can-be-cleary-seenयह तथ्य पांडी की माँ के बयान की पुष्टि करता है कि उनकी बेटी को मृत्यु के एक महीने पहले से पेट में बहुत दर्द था जिसका इलाज उसने पी.एच.सी. में करवाया था. क्या एक ‘वांटेड’ माओवादी नेता खुलेआम पी.एच.सी में जाकर अपना सही परिचय देकर इलाज करवाती?

पांडी के परिवारजनों ने हमें यह भी बताया कि उन्होंने एक रिश्तेदार की मदद से पुलिस में कम्प्लेंट दर्ज करवाई, कि मनोज और पांडी को घर से ही जबरन उठा लिया गया था और वे माओवादी नहीं थे.

manoj-and-pandi-tombastoneमनोज और पांडी के शव की तस्वीर (जिसे हमने पत्रकारों से प्राप्त किया) भी गांववालों की बात की पुष्टि करती है कि उनके साथ टाॅर्चर हुआ था जिनसे शरीर पर चोटें थीं. मनोज का पैर मुड़ा हुआ है जैसे टूटा हुआ हो, और उसके पैरों पर खरोंचों के निशान हैं जो हो सकता है चाकू से किये गए हों. (तस्वीर देखें)

        फर्जी मुकदमे, फर्जी गिरफ्तारी और जन प्रतिनिधियों की प्रताड़ना

स्थानीय मीडिया में, खासकर नई दुनिया अखबार में मई महीने में लगातार पुलिस द्वारा सुकमा जिले के कुछ गांवों के निर्दोष ग्रामीणों की, खासकर जन प्रतिनिधियों की गिरफ्तारी, अवैध तरीके से गादीरास थाने के लॉकअप में रखे जाने और प्रताड़ना किये जाने आदि की खबरें छपी थीं (देखें संलग्नक संख्या 9, 10). इन घटनाओं की जांच के लिए ए.आई.पी.एफ की टीम दो हिस्सों में बंट गयी ताकि हम अलग अलग गांवों में जा सकें. टीम के कुछ सदस्य गादीरास थाने के पड़िया गाँव गए, और अन्य कूकनार थाने के जंगमपाल और बड़े गुरबे गाँव गए.

ग्राम पड़िया, थाना गादीरास, ब्लाक सुकमा, जिला सुकमा

टीम के सदस्य इस गाँव में पहुंचे तो गांववालों ने बताया कि दिनांक 21.5.2016 को सुबह 9 बजे के लगभग 200 से 300 फोर्स आई और सरकारी डैम में मजदूरी कर रहे 8 मजदूरांे को पकड़कर ले गई और कहा कि तुमने ‘एस्सार’ कम्पनी के पाईप लाइन को तोड़ा है। पूर्व में 2002 में ‘एस्सार’ का पाईप लाइन तोड़ा गया था, यही पाईपलाइन 19.05.2016 को फिर से तोड़ा गया. 12 वर्षीय जोगा नाम के लड़के सहित 3 लोगों को, जो धान कुटाई कराने गादीरास गए थे, को भी पुलिस ने उठा लिया. 11 लोगों को कई दिनों तक थाने में रख कर खूब पीटा गया, बाद में उन में से तीन लोगों को छोड़ दिया गया । जिन 8 लोगों को डैम पर से उठाया गया था, अब भी जेल के अन्दर हैं। जांच दल जोगा से भी मिला जिसने बताया कि 7 दिनों तक मुझे अवैध रूप से हिरासत में रखा गया, जहां मुझसे थाने की सफाई, बर्तन धोने, पानी भरने इत्यादि काम कराया जाता था। तेलंगाना के वारंगल में ‘तेलंगाना डेमोक्रेटिक फोरम’ की सभा में जा रहे ग्रामीणों को भी ‘एस्सार’ पाईपलाइन तोड़ने के शक के आधार पर गिरफ्तार कर लिया।

जिस दिन जांच दल गाँव में पहुंचा, उसी सुबह 3 बजे पुलिस ने पड़िया के सरपंच मड़कम हड़मा को पुलिस की वर्दी पहनाकर गांव में घुमाया, और उनके सामने 4 लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जिसमें जोगा के पिता भी थे. इस तरह पुलिस ने षड्यंत्रपूर्वक उन्हें पुलिस एजेंट के रूप में दिखाने का प्रयास किया है. सरपंच पर माओवादी हमले की आशंका हो गई है.

गादीरास के थाना प्रभारी ने बताया कि बार-बार गिरफ्तारियां इसलिए की जा रही हैं कि जोगा की बहन महिला कमांडर है. जबकि जांच दल के समक्ष डेढ़ सौ से अधिक ग्राम वासियों ने बताया कि लड़की गांव में ही रहती है तथा उसे फर्जी तौर पर फंसाया जा रहा है. जांच दल को आशंका है कि जोगा की बहन को नक्सली बताकर फर्जी एनकाउंटर कर दिया जाएगा. सरपंच को भी फंसाया जा सकता है.

जंगमपाल और बडे़ गुरबे गाँव, कुकनार थाना के पास, जिला सुकमा

टीम जंगमपाल गाँव के लिए निकल पडी. साथ में मड़काराम सोडी थे, जो उस गाँव के भूतपूर्व सरपंच थे. खुद मड़काराम को आस-पास के गांवों के अन्य भूतपूर्व सरपंचों और महिला सरपंचों के पतियों के साथ 22 मई को कुकनार से उठा लिया गया था और कुकनार थाने में इस बहाने बंद कर लिया गया था कि वे वारंगल में ‘तेलंगाना लोकतांत्रिक मंच’ द्वारा बुलाई गई गैर-कानूनी सभा में शामिल होने जा रहे थे. उल्लेखनीय है कि तेलंगाना पुलिस ने इस सभा को गैर-कानूनी करार दिया था लेकिन तेलंगाना उच्च न्यायालय ने इसे पलटते हुए सभा के लिए सशर्त इजाजत दे दी थी. (एन.टी.वी तेलुगु की रिपोर्ट देखें इस लिंक पर http://www.degaview.com/play/high-court-conditional-permission-to-tdf-sabha-in-warangal-ntv-ntvteluguhd.html)

बयान
मड़काराम सोडी, भूतपूर्व सरपंच, गाँव जंगमपाल

‘मैंने इस इलाके के ग्रामीणों के साथ वारंगल में होने वाली सभा में जाने की योजना बनाई थी. यह सभा पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों पर दमन के खिलाफ प्रतिरोध के लिए था. हमें सुबह पुलिस ने उठा लिया और कुकनार थाने में पकड़ कर रख लिया गया. हमें बताया गया कि यह एक ‘नक्सली’ सभा है और तुम लोगों के साथ माओवादियों जैसा सुलूक किया जाएगा. हमें बाद में छोड़ दिया गया. लेकिन हमारे साथ उठाए गए अयताराम मंडावी (बड़े गुरबे गाँव के सरपंच के पति) को गिरफ्तार कर लिया गया और अभी तक जेल में हैं. अयता को इससे पहले भी एक बार गिरफ्तार किया जा चुका था और उसकी पत्नी को पुलिस ने अगवा कर लिया था. उनको रिहा करवाने के लिए हमें आन्दोलन करना पड़ा था. इस बार भी हमने सुना कि नागालगुड़ा के सरपंच को 21 मई को उठा लिया गया और उनसे कहा गया कि वे मुखबिर बनेंगे तो ही उन्हें छोड़ा जाएगा. 24 मई को चिकपाल के सरपंच को भी उठा लिया गया.’

‘इस इलाके में सरपंच या नेता बनते हो तो पुलिस और सीआरपीएफ के निशाने पर आ जाते हो. वे धमकाते हैं, डराते हैं, और गिरफ्तार तक कर लेते हैं ताकि तुम पर मुखबिर बनने का दबाव पड़े. सीआरपीएफ के आदमियों ने मुझे आपके साथ चलते हुए देख लिया है, अब वे मुझ पर अत्याचार करेंगे और मुझसे और पूछताछ करेंगे.’

मासाराम, वर्तमान सरपंच, गाँव जंगमपाल

‘लोगों ने वारंगल की सभा में बस से जाने की योजना बनाई थी और एक बस किराए में लिया था, जिसका मालिक आदिवासी था. मैं उनके साथ नहीं गया इसलिए गिरफ्तार होने से बच गया. मड़काराम गिरफ्तार हो गया क्योंकि वह सभा में जा रहा था. पिछले साल मई में जब पुलिस ने आयता मंडावी की पत्नी सुकडी (जो वर्तमान में बड़े गुरबे की सरपंच है) को अगवा कर लिया था, हमने प्रदर्शन किया था. जब हम कुकनार थाने में गए तो पुलिस ने कहा, “क्या तुम लोगों को विश्वास है कि माओवादियों ने उसे अगवा नहीं किया है? हमें नहीं मालूम वह कहाँ है”. अंत में जब सोनी दीदी (सोनी सोरी) हमारे प्रदर्शन में मदद के लिए आई तो हमने दो दिन का चक्का जाम किया और सुकडी को रिहा किया गया.

बड़े गुरबे और छोटे गुरबे के गाँववाले

टीम बड़े गुरबे की सरपंच और आयताराम मंडावी की पत्नी सुकडी से नहीं मिल पाई. लेकिन बड़े और छोटे गुरबे के गाँव वालों ने हमें बताया कि आयताराम को बार-बार इसलिए गिरफ्तार किया जाता था क्योंकि उसे नेता के रूप में देखा जाता है. उसे कई मामलों में बरी कर दिया गया है, लेकिन अब उसे फिर से गिरफ्तार कर कई मामलों में उसके खिलाफ केस दर्ज किए जा रहे हैं.

        फर्जी सरेंडर

चिंतलनार इलाके में 70 फर्जी सरेंडर हुए हैं। स्क्रॉल में पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम और सुप्रिया शर्मा ने इस परिघटना पर रिपोर्ताज किया था (देखें http://scroll.in/article/775849/ground-report-the-truth-about-chhattisgarhs-recent-maoist-surrenders और  http://scroll.in/article/804384/the-story-the-chhattisgarh-police-does-not-want-you-to-read). जांच दल चिंतलनार गांव पहुंची जहां कई लोगों ने हमें बताया कि उन पर दबाव डालकर सरेंडर कराया गया। चिंतलनार में आदिवासी के साथ साथ गैर-आदिवासी भी अच्छी संख्या में हैं.

बयान

एक छोटे दुकानदार का (नाम गुप्त रखा गया है)

‘एक एसपीओ ने मुझे फोन करके पोलमपल्ली थाना बुलाया, यह कहकर कि तुम्हारे खिलाफ वारंट है। जब मैं थाना पहुंचा तो वहाँ मेरे जैसे 25 लोग थे. हम सबको बताया गया कि अगर आप सरेंडर नहीं करते हैं तो आपको नागेश नाम के एसपीओ की हत्या के केस में फंसा दिया जाएगा, जो दो साल पहले मारे गए थे. मैं 55 साल का हूँ अन्य 25 लोगों में भी एक भी असली सरेंडर का केस नहीं था। हम सबको 10-10 हजार रूपए स्पॉट पर ही दिए गए।

गाँव के एक निवासी (नाम गुप्त रखा गया है)

चिंतलनार के रेवालिपारा से 6-7 लोग और लच्छीपारा से 2-3 लोग पिछले महीने गिरफ्तार किये गए, उन पर आरोप है कि माओवादियों से मिलते थे. वे सब आदिवासी हैं, और उनको आदिवासी ही फंसा दिए. मुकरम गाँव के पुजारिपारा से भी 15 लोग करीब दो महीने पहले गिरफ्तार हुए. उन्हें घर से उठा लिया गया, मार पीट कर जेल में डाल दिया गया. गोमोड़ी से भी 10 लोग गिरफ्तार हुए, वे सब जंगल में शिकार पर निकले हुए थे, जंगल से ही पकड़ पर उनको जेल में डाल दिया गया.

चिंतलनार और आसपास से 70 लोगों का पुलिस के दबाव में ‘सरेंडर’ हुआ. ये सब फर्जी सरेंडर हैं. कोई भी अपने आप सरेंडर करने नहीं गया. इनमें से कोई भी माओवादी था ही नहीं. पुलिस माओवादियों का ‘सरेंडर’ कराने के अपने अभियान में सफलता दिखाना चाहती है, उसके लिए लोगों से फर्जी ही सरेंडर करवा रही है. जितना सरेंडर दिखायेंगे, उतना ही पुलिस वालों की तरक्की होगी. कुछ लोग तो मुर्गी लड़ाई में गए हुए थे, वहां से उठाकर ‘सरेंडर’ करवाया. कुछ को पुलिस थाना या कैंप में बुलाकर कहा गया कि या तो सरेंडर हो जाओ या तुम्हें एस.पी.ओ नागेश की हत्या के दो साल पुराने केस में फंसा देंगे. सरेंडर करने वालों में एक टी.बी. का मरीज भी है, बिस्तर पर है फिर भी उसे भी ‘सरेंडर किया माओवादी’ बता रहे हैं!

ज्यादातर सरेंडर वाले लोग घर लौट गए हैं. अभी तक ‘अन्दर-वाले’ (जंगल के अन्दर वाले यानी माओवादी) उन पर दबाव बनाने नहीं आये हैं, सरेंडर वालों को 10-10 हजार रूपये जो मिले, उसकी वसूली करने नहीं आये हैं, पता नहीं कब आ जायेंगे! सरेंडर करने वालों में से कुछ एस.पी.ओ. बन गए हैं, पर ज्यादातर पहले जहाँ थे, वहीं हैं.

हम दोनों तरफ से पिसा हुआ महसूस करते हैं, मुझे भी ऐसा लगता है. माओवादी गांव वालों को अपनी मीटिंग में बुलाते हैं, दवाई पहुंचाने, इलाज करने आदि को कहते हैं. मना करो तो उन्हें नाराज करने का डर होता है. अगर हम जायेंगे, तो पुलिस परेशान करती है. गाँव में आने के रास्ते, पुल वगैरह को माओवादियों ने तोड़ दिया, बिजली के तार भी नष्ट कर दिए. रास्ते को तोड़े ताकि सलवा जुडूम वाले कैम्प में राशन न पहुँच पाये. माओवादी मनरेगा के काम की ‘अनुमति’ नहीं देते हैं. स्कूल सब दोरनापाल चले गए हैं माओवादियों की वजह से. जंगल के अन्दर के, गाँव के लोग भी माओवादियों से त्रस्त हो गए हैं, पर कहने से डरते हैं. हम पुलिस और कैम्प से भी बहुत त्रस्त हो चुके हैं.

अन्य गांववाले :

गाँव के कुछ अन्य युवाओं से जांच दल ने बात किया, जिन्हें पुलिस के फर्जी ‘सरेंडर’ अभियान में शामिल करवाया गया था. पर वे माओवादियों के डर से बोलना नहीं चाहते हैं. हमें बताया गया कि गांव के सरपंच, कोडीयाम कोसा को भी माओवादियों से दबाव मिल रहा है क्योंकि उन्होंने फर्जी सरेंडर कराने में पुलिस की मदद की.

नाबालिग बच्ची के साथ छत्तीसगढ़ आर्म्‍ड फोर्स के जवान द्वारा बलात्कार 

दिनाँक 11.06.2016 को जाँच दल वापस लौट रहा था कि हमें पता चला कि दन्तेवाड़ा थाने मे एक बच्ची के साथ एक जवान द्वारा बलात्कार की रिपोर्ट लिखी जा रही है. 14 वर्ष की बच्ची सन्मति (नाम यहाँ बदला गया है) के साथ इस जवान ने दिनांक 8.06.2016 को बलात्कार किया था. जाँच दल के लोग थाना दन्तेवाड़ा पहुँचे और थ्प्त् लिखवाने और मेडिकल करवाने की प्रक्रिया में बेला भाटिया और सोनी सोरी की मदद किये.

जांच दल के लौट जाने के बाद हमें पता लगा कि आरोपी जारम कैम्प के ‘छत्तीसगढ़ औक्सिलिअरी आम्र्ड फोर्स’ का सहायक आरक्षक के रूप में चिन्हित किया गया. उसकी गिरफ्तारी से पहले वह और उसके परिवार जन अपने गाँव के सरपंच के साथ सोनी सोरी के घर पर आये और पीड़िता के परिवार के साथ समझौता करने की कोशिश की. पर पीड़िता का परिवार डटा रहा और आरोपी गिरफ्तार हुआ.

सन्मति का बयान

‘मैं पोडुम गाँव की हूँ, 12 साल की हूँ, सातवीं क्लास में छात्रावास में पढ़ती हूँ. गर्मी की छुट्टियों में अपनी बहन तथा जीजा के घर पर आ कर रह रही थी। जीजा की किराने की दुकान है, जिसमें कैम्प में निवास करने वाले जवान सामान खरीदने आते हैं। कैम्प ग्राम जारम पंचायत से लगा हुआ है और दो साल से पुराना है। वहां का एक सिपाही 10 अप्रैल को मेरे पास आया, उसने डायरी में अपना नाम आर.आर. नेताम लिखा और अपना मोबाईल नम्बर 9479082401 बताया और इस नम्बर से वह मुझसे बात करता था, कहता था मैं तुम्हें चाहता हूँ, तुमसे शादी करूँगा, तुम्हे उठा कर ले जाऊँगा. दिनाँक 08.06.2016 को शाम 5.30 बजे उसने फोन करके पूछा तेरे जीजा एवं दीदी घर पर हैं क्या, मैंने बताया कि वे कहीं मेहमानी पर गए हैं और मैं दुकान बंद करने जा रही हूँ तो वह सिपाही दुकान पर आया, सब लोगों के जाने के बाद, वह मुझे दुकान के छोटे वाले कमरे में ढकेल कर ले गया, मेरा मुंह बंद करके मेरे साथ जबरदस्ती किया और कहा कि रिपोर्ट लिखवाएगी तो जान से खत्म कर दूँगा। वह सुबह चला गया. मैं दो दिन तक कुछ खा नहीं पायी, सिर्फ एक बार दुकान के पीछे लगे हैंडपंप पर जाकर पानी पी. दिनाँक 11.06.2016 को मेरे जीजा एवं दीदी घर आए तब मैं उनके साथ थाने में रिपोर्ट लिखाने आई हूँ.’Dantewada rape accused CAF jawan DR Netam - Front row, centre-1466658795

टिप्पणियां

इस घटना के बारे में एक लेख में बेला भाटिया की कुछ टिप्पणियां यहाँ ली जा रही हैं. लेख का (http://scroll.in/article/810472/the-rape-of-a-minor-girl-shows-how-justice-is-sought-to-be-compromised-in-dantewada) शीर्षक है ‘एक नाबालिग का बलात्कार दिखाता है कि दंतेवाड़ा में न्याय के साथ किस तरह समझौता करने की कोशिश हो रही है’.

‘छत्तीसगढ़ औक्सिलिअरी आम्र्ड फोर्स’ के बारे में बेला लिखतीं हैं – ‘उल्लेखनीय है कि इस फोर्स का गठन उच्चतम न्यायालय के जुलाई 2011 में दिए गए निर्देश के बाद किया गया कि SPOs (विशेष पुलिस अफसर) को भंग किया जाए. माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान SPOs आगजनी, हिंसा, और बलात्कार की कई घटनाओं के लिए बदनाम हो चुके थे. सर्वविदित था कि इन अपराधों के लिए उनको सजा नहीं मिलती थी.

पूरे घटनाक्रम के बारे में बेला लिखती हैं- ‘यह एक सीधी-सादी कहानी है, लेकिन ऐसी कहानी जो सैनिकीकरण का एक परिणाम दिखाती है. खासकर उन लोगों के लिए जो पुलिस थानों और कैम्पों के पास रहते हैं, जो अक्सर सामने नहीं आता है. वर्दी पहने हुए आदमी की वह ताकत, प्यार के वे दावे, शादी के वे वादे, और “ना” सुन पाने की वह अक्षमता. समझौता करा लेने की कोशिश, दर्शाती है कि समझौते भी होते हैं, कि अन्य ऐसी घटनाएं हुई हो सकती हैं जिन्हें इसी तरह दबा दिया गया होगा.

सैनिकीकरण का तथाकथित मकसद है सुरक्षा प्रदान करना, लेकिन बस्तर के लोगों को प्रत्येक दिन असुरक्षा के साये में जीने को मजबूर कर दिया गया है’.

इस सन्दर्भ में हम याद कर सकते हैं कि कांकेर की बलात्कार पीड़िता के पिता ने जांच दल को बताया था कि पुलिस ने आरोपी एस.पी.ओ. और पीड़िता और उसके परिवार के बीच ‘समझौता’ करवाया था.

 

 हिरासत में यातना

गाँव पुसगुड़ी, मोदकपाल पुलिस थाना, जिला बीजापुर

टीम ने युवकों की हिरासत में यातना की एक केस की जांच की, जिसमें बीजापुर जिले के पुसगुड़ी गाँव के एक व्यक्ति की मौत हो गई. इस घटना की रिपोर्ट स्थानीय अखबारों में आई है (देखिए संलग्नक संख्या 11, 12, 13)

बयान

रामचंद्र येल्लम, पूर्व सरपंच, पुसगुड़ी गाँव

‘5 अप्रैल को मुरकिनार गाँव के अंगनपल्ली चिन्न मुक्ता को मार दिया गया. 7 अप्रैल 2016 को मुरकिनार गाँव के अंगनपल्ली गणपत हमारे गाँव के तीन लोगों को मोदकपाल थाना ले गए और उन पर अपने भाई अंगनपल्ली चिन्नमुक्ता की हत्या का आरोप लगाया. ये तीन लोग, गणेश येल्लम, गणपत येल्लम, और येल्लम शिवैय्या खुद से थाना गये जहां पूछताछ के लिए उन्हें बंद कर दिया गया. 9 अप्रैल को गणपत येल्लम की पत्नी सुनीता ने कहा – ‘चलो ! हम थाने में उन लोगों को देखने चलते हैं.’ इसलिए हम कुछ लोग उसको वहाँ ले गए. पुलिस ने हमें बताया कि उन तीन व्यक्तियों ने हत्या करना कबूल लिया है और उन्हें जेल में रखा जाएगा, इसलिए उन लोगों से मिलने की इजाजत नहीं दी और हम वहाँ से चले आए.

10 अप्रैल को पुलिस ने गाँव में खबर भेजी कि गणपत येल्लम की तबीयत ठीक नहीं है और हम उन्हें ले जाएं. हम जब वहाँ गए तो हमने पाया कि वह बुरी तरह घायल था. उसने अपनी पत्नी को बताया कि पुलिस ने लगातार तीन दिनों से उनको मारा और उसके घावों में नमक-मिर्च घिसकर लगाया. उसे घर वापस लाया गया लेकिन जल्द ही घावों के कारण उसकी मृत्यु हो गयी. हमने स्थानीय नेता विक्रम मंडावी के साथ उसके शव को लेकर थाने में प्रदर्शन किया जिसके परिणाम से मोदकपाल थाने के टीआई, एसआई, और तीन अन्य स्टाफ को निलंबित कर दिया गया.

ex sarpanch of Modakpal
ex sarpanch of Modakpal

मैं हाल में अन्य दोनों व्यक्तियों से मिला. उन्हें भी बुरी तरह पीटा गया था और हिरासत में इकबालिया बयान ले लिया गया था. गणपत येल्लम की पत्नी को 20,000 रुपये मुआवजे में दिए गए, लेकिन मुआवजे के तौर पर नहीं, बल्कि ‘परिवार कल्याण’ फण्ड से, जिससे किसी भी परिवार को राशि दी जाती है, जिसमें कमाऊ बेटे की मृत्यु हो जाती है.

टिप्पणियाँ

पुलिस के खिलाफ थ्प्त् केवल गणपत येल्लम के मामले में किया गया जिसकी हत्या हुई. अन्य दो व्यक्तियों को हिरासत में यातना से लिए गए इकबालिया बयान के आधार पर जेल में बंद कर दिया गया है. जेल में बंद दोनों व्यक्तियों की पत्नियाँ और छोटे बच्चे हैं जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हैं. स्थानीय मीडिया जिसने हिरासत में मृत्यु की खबर छापी, अब छोटे-मोटे मुआवजे के भुगतान के बाद इस मामले में रूचि नहीं रखती है.

 

 

 अमृत के नाम पर विषः स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरायी

 

जाँच दल बीजापुर जिले के बैरागढ़ ब्लाक के ग्राम केतूलनार पहुँचा. जहाँ पर कि दिनाँक 30.05.2016 को ‘मुख्यमंत्री अमृत योजना’ (संलग्नक संख्या 14 – विज्ञापन) के तहत अमृत दूध पीने से दो छोटी बच्चियों की मौत हो गई थी और कई और बच्चे गम्भीर हालत में बीमार पाए गए थे।

पीड़ितों के बयान

मृतक बालिका आरती की माँ सोनी कुड़ियम

‘दिनाँक 30.05.2016 को आंगनवाड़ी में कुल 4 बच्चे ही पहुँचे थे और पहली बार ही अमृत दूध आंगनबाड़ी केन्द्र द्वारा बच्चों को दिया गया था. आरती, जिसकी उम्र 4 साल थी, 3 साल से आंगनबाड़ी में आती थी. आंगनबाड़ी में उसे लाई, चना वाला भोजन मिलता था. दिनाँक 30 .05 .2016 को सुबह 8 बजे आंगनबाड़ी केन्द्र गई थी. हमारे क्षेत्र में बाजार सुबह लगता है। अतः मैं नेमेड़ बाजार चली गई थी, बाजार से लौटी तब तक 3 बज चुका था. घर पर लड़की उल्टी, दस्त कर रही थी. अस्पताल 9 किमी. दूर है, आने-जाने को कोई साधन न होने के कारण उसे अस्पताल नहीं ले जा सकी. रात में 1.30 बजे मेरी बेटी खत्म हो गई. दूसरे दिन उसे कुटरू थाना ले गए जहाँ उसका पी.एम. (पोस्ट मोर्टेम) हुआ, तब से आंगनबाड़ी केन्द्र बन्द है.’

मृतक बच्ची शर्मिला की माँ लक्ष्मी मिच्चा

‘मेरी बेटी शर्मिला 3 साल की थी. सुबह 8 बजे आंगनबाड़ी केन्द्र में गई थी, मेरी बच्ची तब स्वस्थ थी. मैं बाजार चली गई. बाजार से शाम 5 बजे लौटकर आई तो देखा कि मेरी लड़की बेहोश हो गई थी. मैं खुद मितानिन हूँ (छत्तीसगढ़ में आशा कार्यकर्ता को मितानिन कहते हैं). घटना के समय मेरे पास ओ.आर.एस. घोल, उल्टी-दस्त व बुखार की कोई दवा नहीं थी। आंगनबाड़ी में दूध पीने के पश्चात् बच्चे अपने-अपने घर वापस आ गए। सप्ताह में एक दिन सुगन्धित दूध मिलता है। 10 साल से आंगनबाड़ी गाँव में चल रही है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता 3 किलोमीटर दूर सतना पल्ली में रहती है। सरकार द्वारा दोनों मृत बच्चों के परिवारों को 1 लाख 10 हजार रूपये दिए गए, किन्तु दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई, न ही आंगनबाड़ी में दूध सप्लाई करने वाली एजेन्सी पर अपराधिक मुकदमा दर्ज किया, न ही उसे ब्लैक लिस्टेड किया।

अन्य तथ्य

जाँच दल द्वारा पूछे जाने पर पता चला कि गाँव मे 8 मितानिन हैं. जिनके पास घटना वाले दिन ओ.आर.एस. का घोल, उल्टी, दस्त की दवा तथा मलेरिया या बुखार की कोई भी दवा नहीं थी ।

बच्चियों की मृत्यु के लिए सरकार आंगनबाडी कार्यकर्ताओं को ही दोषी ठहराने की कोशिश में लगी है. विज्ञापन (संलग्न, संख्या 14) से पता लगता है कि इस सुगन्धित दूध को रखने के लिए कई तरह के नियमों का पालन करना जरूरी है. जैसे, इसे सामान्य तापमान में सूखे एवं स्वच्छ जगह पर रखा जाना चाहिए. क्या ऐसी जगह हर आंगनबाड़ी केंद्र में उपलब्ध होगी? गर्मी के मौसम में तापमान सामान्य न रहने पर दूध को कैसे रखें? बच्चों एवं अभिभावकों को शिक्षित किया जाना है कि दूध पीने के पहले और बाद में किसी खट्टे पदार्थ को न खाएं. क्या हर बच्चे पर इतनी कड़ी निगरानी संभव है? बच्चे को दूध के प्रति एलर्जी होने पर दूध नहीं पिलाना है. क्या आंगनबाड़ी कार्यकर्ताएं, जो डॉक्टर नहीं हैं, दूध से एलर्जी को पहचान सकती हैं? क्या ग्रामीण भारत की परिस्थितियों में ऐसा पदार्थ आंगनबाड़ी में दिया जाना चाहिए? पोस्टर में लिखा है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं सहायिका खुद दूध का सेवन करके सन्तुष्टि कर लें. ऐसा नियम तो उनके अपने अधिकारों का भी हनन है, उनकी अपनी जान को खतरे में डालता है!

 

 

 

                     कैम्प और चेकपोस्ट

गाँव के लोगों को पुलिस और सीआरपीएफ चेकपोस्टों और कैम्पों में जिस तरह डराने-धमकाने और रोज अपमानों और खतरों का सामना करना पड़ता है वह गहरी चिंता का विषय है.

एआईपीएफ की टीम को कुकनार थाने और गाँव के बीच वाली सड़क पर स्थित सीआरपीएफ कैंप पर रोका गया और पूछताछ की गई. सीआरपीएफ के आदमी बाहर आए और उन्होंने पूछा, “क्या तुम लोग जेएनयू से हो?’’ ‘‘गाँववालों से क्यों मिल रहे हो?’’ ‘‘केवल गाँववालों का पक्ष क्यों सुन रहे हो?’’ ‘‘हमारे कैंप में आकर हमारा पक्ष भी क्यों नहीं रखते हो?” उन्होंने आगे कहा, “गाँववालों से कहो कि हम उनका नुकसान नहीं करना चाहते हैं, हम केवल विकास चाहते हैं. जब विकास हो जाएगा तो हमारा काम हो जाएगा और हम यहाँ से चले जाएंगे.” जब उन्होंने टीम के साथ जंगमपाल गाँव के पूर्व सरपंच मड़काराम सोड़ी को देखा तो वे तुरंत उसे अलग ले गए और कहने लगे, “तो तू है उनके साथ? उनको कहाँ ले जा रहा है और क्यों?” जब उसने जवाब दिया की अधिवक्क्ता शालिनी गेरा ने मुझे फोन किया था और आग्रह किया कि मैं टीम को गाइड करूँ, तो सीआरपीएफ के एक आदमी ने कहा, “अच्छा, तो तुम्हें लगता है कि तू बड़ा आदमी बन गया है जो दिल्ली की अधिवक्ताओं से बात करता है?” आखिरकार जब उन्होंने हमें जाने दिया तो बार-बार याद दिलाया कि वे नजर रखेंगे और इंतजार करेंगे हमारी वापसी का.

दोरनापाल से चिंतलनार के बीच का रास्ता भी सीआरपीएफ कैम्पों से भरा पड़ा है. हमारी टीम के तीन सदस्यों ने इस रास्ते का सफर स्थानीय ऑटो रिक्शा से किया जिसके चालक ने बताया कि वह नियमित रूप से उस रास्ते पर चलता है. हर सीआरपीएफ कैंप पर वह उतरकर गार्ड के पास जाता है और अपना नाम, नंबर, पिता का नाम आदि देता है. हमने पूछा कि गार्ड आपको रोकते नहीं हैं, फिर भी आप क्यों ऐसा करते हैं? उसने जवाब दिया, “मुझे हर कैंप में ऐसा करना पड़ता है. अगर नहीं करूंगा तो वे मेरा कुछ भी कर सकते हैं. आज आप साथ हैं तो वे कुछ ठीक व्यवहार कर रहे हैं. आम तौर पर वे मुझ पर गालियों और धमकियों की बौछार करते हैं”. चिंतलनार जाते और आते समय हमने कुछ गाँववालों को लिफ्ट दी जो उसी दिशा में चल रहे थे. सीआरपीएफ के आदमी जो हमारे नाम और फोटो लेने बाहर आते थे, उन गाँववालों को अपमान और दादागिरी की नजर से देखते थे. लम्बे चैड़े, हट्टे-कट्टे सीआरपीएफ के आदमी दुबले-पतले छोटे कद के ग्रामीणों पर हावी होकर उन्हें ऑटो से बाहर खींचते और गला पकड़कर पूछते, “तुझे गाँव से बाहर क्यों निकलना पड़ा? कहाँ जा रहा है? क्यों जा रहा है?” ऑटो चालक ने हमसे फिर कहा कि आपकी उपस्थिति के कारण इनका व्यवहार हमेशा की तुलना में आज कुछ सभ्य है.

सीआरपीएफ के आदमी सामान्यतः बस्तर या छत्तीसगढ़ के नहीं होते. उनके व्यवहार से अहसास होता है कि वे आदिवासियों को असभ्य समझते हैं. आदिवासियों की गरिमा, भाषा और संस्कृति के प्रति उनके मन में कोई सम्मान नहीं है. वे स्वयं माओवादी हमलों के डर के साए में जी रहे युवक हैं जिन्हें प्रोत्साहित किया गया है कि वे हर आदिवासी को “शत्रु कैंप” का हिस्सा समझें. यह उस सीआरपीएफ के आदमी की बात से साफ हुआ. जिसने हमसे कहा कि हमें गाँववालों का “पक्ष” और सीआरपीएफ के आदमियों का “पक्ष” दोनों सामने रखना चाहिए. साफ तौर पर उनके मन में दो “पक्ष” हैं. ऐसे गाँव वालों के लिए कोई जगह नहीं जिन्होंने किसी का पक्ष नहीं लिया हो. उनके शब्द यह भी दिखाते हैं कि “विकास” से उनका क्या मतलब है. हमें जगह .जगह सरकारी विज्ञापन मिले  (देखें संलग्नक संख्या 15) जिनमंे लिखा गया था ‘नक्सलवाद छोड़ो, विकास से नाता जोड़ो ’. इन विज्ञापनों में लिखा रहता कि सरकार लोगों का इलाज करवाती है, विकास करती है, जबकि माओवादी हिंसा और दहशत फैलाते हैं, घरों में अँधेरा लाते हैं. अगर ‘विकास‘ का अर्थ आदिवासियों का कल्याण है, यानि चिकित्सा, शिक्षा, पौष्टिक आहार आदि, तो आदिवासी ऐसे विकास का विरोध क्यों करते? ऐसे विकास का समर्थन करने के लिए सीआरपीएफ, पुलिस और सरकारी तंत्र को क्यों ग्रामीणों को “मनवाना” पड़ रहा है? सच्चाई तो यह है कि इस इलाके में “विकास” का अर्थ है आदिवासियों का अपने जमीन से विस्थापन, खनन के लिए जंगलों को नष्ट करना, और आदिवासियों के ऊपर पुलिस और सीआरपीएफ के भय और हिंसा का राज. ग्रामीणों और चुने हुए जन प्रतिनिधियों को फर्जी एनकाउंटर और फर्जी सरेंडर में मुखबिर बनने को मजबूर करके पुलिस और सीआरपीएफ आदिवासियों के लिए माओवादियों द्वारा हिंसा के खतरे को भी बढ़ा देते हैं. इसलिए गांववालों के मन में यह बिलकुल नहीं है कि सरकार वाकई ‘विकास का पर्याय’ होती है. बल्कि उनकी आँखों में, ‘सरकार’ का मतलब है उनकी अस्मिता और गरिमा का रोज ब रोज अनादर, महिलाओं और बच्चों का बलात्कार और हिंसा का खतरा, फर्जी एनकाउंटर, और ‘विकास‘ के नाम पर विस्थापन व उजाड़े जाने का भय.

भय, असुरक्षा, आपसी संदेह का माहौल

 

जिन गांवों में जांच दल गया, उनमें गांव वालों में आपसी संदेह और जबरदस्त असुरक्षा का माहौल था. आदिवासी ग्रामीण भयग्रस्त हैं कि पुलिस, सुरक्षाबल आदि उन्हें ‘माओवादी’ करार देंगे. लेकिन साथ में उनमें यह भय भी है कि माओवादी उन्हें ‘मुखबिर’ करार देंगे. माओवादियों द्वारा मनमाने तरीके से लोगों को ‘मुखबिर’ करार कर उनकी हत्या कर देने जैसी घटनाएं, जिसमें गैर-फौजी नागरिकों पर हिंसा की जाती है, बेहद चिंताजनक है. ग्रामीणों के लिए एक धु्रवीकृत स्थिति, जिसमें राज्य भी और माओवादी भी उन पर दबाव डालते हैं कि आर रहो या पार, तनावपूर्ण और असुरक्षित है. चुने हुए जन प्रतिनिधियों की स्थिति भी चिंताजनक है, जहाँ पुलिस मांग करती है कि वे खुलकर मुखबिर बनें और फर्जी सरेंडर आदि कराएँ, और उनमें माओवादियों द्वारा हिंसा का भय रहता है. ऐसे भी जनप्रतिनिधि हैं जिन्हें जेल हुआ है, और जिन्होंने सरकार द्वारा ग्रामीणों के उत्पीड़न का विरोध किया है, पर जिन्हें माओवादी शक की नजर से देखते हैं और जिन्हें माओवादियों द्वारा हिंसा का भय रहा है. माओवादी भी असहमति या मतभेद में और सरकार की दलाली में अंतर नहीं करते. मिंट को 22 जून 2009 को दिए गए इंटरव्यू में भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य कामरेड बिमल ने कहा ‘युद्ध में कोई गैर सैनिक नागरिक नहीं होते, लोग या तो आपके साथ हैं या आपके खिलाफ हैं.’

केतुलनार के पास कुटरू में सलवा जुडूम का एक पुराना कैम्प लगा है. समय के अभाव में जांच दल कैम्प में तो नहीं जा पाया, पर कैम्प के आस-पास एक-दो लोगों से बात हुई. एक गोंड आदिवासी (जिसका नाम उसकी सुरक्षा के लिए गुप्त रख रहे है), ने बताया कि ‘यहाँ से 40 किमी. दूर मेरा गाँव है, गाँव में कोई रोड नहीं है, स्कूल, अस्पताल नहीं हैं. मेरे गाँव में माओवादी 6 लोगों को अगवा कर लिए थे, जिनमें से तीन की हत्या कर दिए. बचे हुए तीन लोगों की खूब पिटाई कर के छोड़ दिए थे. बाद में, किसी और घटना के सिलसिले में उनके पिता को भय हो गया कि माओवादी उनकी हत्या कर देंगे. इसलिए पूरा परिवार 2012 में उठकर कैम्प में चला आया. सलवा जुडूम के कैम्प में काफी ज्यादा लोग रहते थे, उनकी कोई व्यवस्था सरकार ने नहीं की. जब कोई रैली निकालनी होती थी तब राशन मिलता था, बहुत से लोग इसकी वजह से वापस अपने गाँव में लौट गए हैं. सरकार ने हमारे रहने के लिए कोई मकान या जमीन नहीं दी है न ही जीविका उपार्जन हेतु कोई व्यवस्था की है. हम अपने गाँव वापस जाना चाहते है. हमारी गाँव में 4 एकड़ खेती है. कैम्प में लगभग दो हजार गाँव के लोग रह रहे हैं, जो अन्य गाँव से सरकार द्वारा लाए गए है या खुद चले आये हैं. मजदूरी करके अपना भरण-पोषण करते हैं.‘

इस व्यक्ति जैसे कुछ लोगों को ‘नक्सल पीड़ित संघर्ष समिति’ जैसे संगठन अपने साथ जोड़ते हंै, और ऐसे संगठनों का सरकार भी राजनीतिक इस्तेमाल करती है. सरकार और सरकारी तंत्र भी ऐसे लोगों की परेशानी का समाधान नहीं चाहते हैं. बस्तर में जो अमानवीय ध्रुवीकरण है, उसे कम करने की कोई कोशिश नहीं करता.

‘नक्सल पीड़ित संघर्ष समिति’ ने बेला भाटिया के खिलाफ जुलूस निकाला था और पुतला जलाया था. बेला भाटिया जैसे शोधकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ ऐसे संगठनों का इस्तेमाल अफसोसजनक है. खुद बेला भाटिया का कहना है, “माओवादी हिंसा से भी कुछ लोग प्रभावित हैं और उनकी बात भी सुनने की जरूरत है.” (http://scroll.in/article/805893/we-know-what-naxals-are-like-she-is-not-one-of-them-support-for-researcher-bela-bhatia-in-bastar)

माओवादियों की हिंसा से प्रभावित लोगों को ढाल बनाकर स्थानीय लोकतान्त्रिक कार्यकर्ताओं, जैसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों आदि को ‘माओवादी समर्थक’ करार देना और निशाना बनाना गलत है.

 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबन्ध के बाद भी ‘सलवा जुडूम’ अलग अलग रूपों में जारी है

 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक के बाद भी ‘सामाजिक एकता मंच’ (जिसने हाल में ही इण्डिया टुडे के एक स्टिंग ऑपरेशन में खुलासे के बाद खुद को भंग कर लिया) और इसी जैसे अन्य नामों से ‘सलवा जुडूम’ चलाया जा रहा है. इन संगठनों की स्वतंत्र उपस्थिति नहीं है, बल्कि ये सरकार के ही अंग के रूप में काम करते हैं. अप्रैल मध्य में इंडिया टुडे द्वारा किये गए स्टिंग ऑपरेशन ने साबित किया था कि ‘सामाजिक एकता मंच’ जो अपने आप को स्वतःस्फूर्त बना माओवाद विरोधी संगठन कहलाता था, दरअसल पुलिस के ही एजेंट थे. स्टिंग में उच्च स्तर के पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए कैमरे पर पकड़ा कि मंच, पुलिस ने ही बनाया है, यह “हमारा ही” काम करता है. ताकि पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम, ‘जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप’ की वकील शालिनी गेरा और शोधकर्ता व मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया जैसे ‘उपद्रवी’ तत्वों को बस्तर से भगाने के काम में पुलिस की मदद हो सके. स्टिंग में सामाजिक एकता मंच के नेता ने भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को बंद कर दिया, इसलिए अब हम नए.नए संगठन शुरू करके जुडूम के काम को आगे बढ़ा रहे हैं. (http://indiatoday.intoday.in/story/sting-op-exposes-how-activists-lawyers-were-hounded-out-of-chhattisgarh/1/643207.html) उन्होंने स्टिंग में कहा था कि अगर सामाजिक एकता मंच को भी बंद करना पड़ा तो हम ‘विकास संघर्ष समिति’, ‘आदिवासी एकता मंच’, ‘महिला एकता मंच’ जैसे नामों से अपना काम जारी रखेंगे. इस स्टिंग के बाद सामाजिक एकता मंच भंग हो गया और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह को इस मामले में जांच बिठानी पड़ी. पर जाँच में बस्तर पुलिस के आई.जी. को भी रखा गया है, जो खुद पूरे काण्ड में लिप्त हैं, ऐसी जांच पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता है.

   निष्कर्ष और सिफारिशें

 

जाँच दल ने पाया कि पूरे बस्तर में संवैधानिक प्रावधानों का खतरनाक हद तक उल्लंघन हो रहा है. सरकार की सैनिकीकरण की नीति के भयानक प्रभाव हो रहे हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि लोकतांत्रिक प्रतिरोध और राजनैतिक दलों और जन संगठनों के लिए काम करने की जगह सिमटती जा रही है. भाकपा जैसे राजनैतिक दल और सोनी सोरी जैसे कार्यकर्ता जो मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता के सवाल उठाते हैं, उनको पुलिस द्वारा उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.

मनमानी गिरफ्तारियां और अवैध हिरासत आम हो गयी हैं और ग्रामीणों के लिए कानूनी सहायता के अभाव के साथ साथ मीडिया की उपेक्षा के कारण पुलिस और अर्धसैनिक बलों को बेधड़क कानूनों के उल्लंघन करने की छूट मिल गई है. ‘जगदलपुर लीगल ऐड ग्रुप’ जैसा संगठन जो इस कमी की भरपाई करते हुए हुए फर्जी केसों में फंसे ग्रामीणों की मदद करने की कोशिश कर रहा था, उन्हें पुलिस द्वारा बस्तर छोड़ने को मजबूर कर दिया गया है.

जिन इलाकों में ईसाई अल्पसंख्यक मौजूद हैं, वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों ने खुद कानून को अपने हाथों में ले रखा है और अल्पसंख्यकों को आतंकित कर रहे हैं. पुलिस की कोई सख्त कार्रवाई होगी, ऐसा उनको कोई डर नहीं है क्यों कि वे आश्वस्त है कि उन्हें सरकार और सत्ताधारी दल का संरक्षण प्राप्त है.

यहाँ के गाँव वाले पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा यौन हिंसा के आसान शिकार बन जाते हैं. अप्रैल 2016 में ‘कोऑर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स ऑर्गनाइजेशन्स’ और ‘विमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन’ ने बस्तर का दौरा किया और एक रिपोर्ट तैयार की, (State of Siege: Report on Encounters and Cases of Sexual Violence in Bijapur and Sukma Districts:  https://wssnet.files.wordpress.com/2016/05/state-of-siege_report_29th-april_0.pdf)

एआईपीएफ टीम के दौरे के बाद गोम्पाड़ गाँव में नाबालिग लडकी मड़कम हिडमे के दिल दहला देने वाले बलात्कार और खून का मामला उजागर हुआ है. स्थानीय लोगों के आन्दोलन के बाद उच्च न्यायालय ने शव को खोद निकालने  के आदेश दिए हैं. (http://scroll.in/article/810601/a-stark-nude-body-wrapped-in-plastic-what-happened-to-a-young-woman-in-chhattisgarh)

कश्मीर, पूर्वोत्तर, छत्तीसगढ़, ओडिशा, और आन्ध्र प्रदेश के टकराव के इलाकों से महिलाओं के बयानों को सुनने के बाद जस्टिस वर्मा आयोग ने निम्न सिफारिशें की थी:

क.    सैनिक बलों और वर्दीधारी कर्मियों द्वारा महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों को सामान्य आपराधिक कानून के तहत लाना चाहिए.

ख.    सशस्त्र बलों द्वारा यौन हिंसा के मामलों में शिकायत करने वाली महिलाओं और गवाहों की सुरक्षा का विशेष ख्याल रखना चाहिए.

ग.    देश के सभी टकराव के इलाकों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष आयुक्त होने चाहिए जिनकी नियुक्ति न्यायिक या विधायी हो. चयनित आयुक्तों को महिलाओं के मामलों का, खासकर टकराव के इलाकों के मामलों का अनुभव हो. साथ ही, इन आयुक्तों के पास सशस्त्र बलों द्वारा महिलाओं के खिलाफयौन हिंसा के सभी मामलों का निवारण और आपराधिक कार्यवाही शुरू करने और निगरानी रखने के लिए पर्याप्त अधिकार होने चाहिए.

घ.    पुलिस थानों में हिरासत में ली गयी महिलाओं और अर्धसैनिक चेक पॉइंट से गुजरती महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विशेष ध्यान रखना चाहिए और यह उपर्युक्त आयुक्तों की निगरानी के तहत आने वाला विषय होना चाहिए.

ये सिफारिशें न सिर्फ यौन हिंसा के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये टकराव के इलाकों में नागरिकों के खिलाफ हो रही हिंसा का समाधान ढूँढने में भी हमारी मदद कर सकती हैं.

हमारी राय में राष्ट्रीय आयोगों – जैसे महिला, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग को अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए और बस्तर की परिस्थिति पर स्वतंत्र रूप से निगरानी रखनी चाहिए.

हम मीडिया की भूमिका पर भी टिप्पणी करना चाहते हैं. कुछ स्थानीय अखबारों और पत्रकारों ने और कुछ स्वतंत्र न्यूज पोर्टलों के पत्रकारों ने भी पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के बावजूद बहुत हिम्मत के साथ मानवाधिकारों के हनन की खबरों को रिपोर्ट किया है. कुछ राष्ट्रीय अखबारों और टीवी चैनलों ने भी बस्तर पर कुछ अच्छी रिपोर्टिंग की है, खासकर इस इलाके में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के उत्पीड़न की खबरों की रिपोर्टिंग. लेकिन हमें लगता है कि राष्ट्रीय मीडिया को लगातार कवरेज के रूप में और बहुत कुछ करना बाकी है, जिससे बस्तर के बारे में सच्चाई को राष्ट्रीय स्तर पर लोग उतना जान सकें, जितने का वह हकदार है.

 

हमारी सिफारिशें:

  1. बस्तर में संवैधानिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता पर निगरानी रखने के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा विशेष आयुक्तों की एक टीम या निगरानी समिति की नियुक्ति होनी चाहिए. वर्मा आयोग के सुझावों के आधार पर बनी इस समिति या आयुक्तों की टीम को सामान्य तौर पर आम नागरिकों की और विशेष कर महिलाओं की सुरक्षा की हालत पर निगरानी रखनी चाहिए. समिति के पास हिरासत में हिंसा और पुलिस या सशस्त्र बलों द्वारा यौन हिंसा के सभी मामलों की निगरानी और जाँच करने और निवारण व आपराधिक कार्रवाई शुरू करने के अधिकार होने चाहिए. समिति को पुलिस थानों और अर्धसैनिक चेकपोस्टों में नागरिकों की, खासकर महिलाओं की, सुरक्षा की निगरानी करनी चाहिए. उसे अर्धसैनिक कैम्पों के निकट स्थित गाँवों में नागरिकों, खासकर महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा की निगरानी भी करनी चाहिए.
  2. इलाके के ईसाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ चलाए जा रहे साम्प्रदायिक अभियानों के सन्दर्भ में पुलिस और जिला प्रशासन के व्यवहार पर निगरानी रखने के लिए उच्चतम न्यायालय को एक अलग समिति की नियुक्ति करनी चाहिए. यहाँ भी समिति के पास उन व्यक्तियों और संगठनों के खिलाफ निवारण और आपराधिक कार्रवाई शुरू करने के अधिकार होने चाहिए जो बस्तर के इलाकों में ईसाई अल्पसंख्यकों के अधिकार और स्वतंत्रता का हनन करना चाहते हैं.
  3. उत्पीड़न के अलग.अलग मामलों में जिलाधिकारी द्वारा जाँच बैठाई जाती भी है तो वह काफी नहीं है. हर फर्जी एनकाउंटर के आरोपों के मामले में न्यायिक जाँच बैठाई जानी चाहिए और सारे दोषियों को सजा मिलनी चाहिए.
  4. साम्प्रदायिक हिंसा करने और करवाने वालों को सजा होनी चाहिए.
  5. स्वतंत्र रूप से नियुक्त एक टीम को जाँच करनी चाहिए कि कांकेर इलाके में फारेस्ट राइट्स एक्ट एवं च्म्ै। के प्रावधानों का कड़ाई से पालन हो रहा है कि नहीं. जब तक यह नहीं हो जाता, तब तक खनन और उससे सम्बंधित योजनाओं के लिए जंगलों में भू-अधिग्रहण की प्रक्रिया बंद करनी चाहिए.
  6. राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग, बस्तर इलाके में स्थाई रूप से अपनी टीमें स्थापित कर सकते हैं जो स्वतंत्र रूप से गाँव का दौरा करें और शिकायतों को स्वीकार कर, जाँच करें.
  7. अखबारों और टीवी चैनलों सहित राष्ट्रीय मीडिया, बस्तर इलाके में स्थाई रूप से पत्रकारों, वीडिओग्राफरों और फोटोग्राफरों की टीमों को रखें और अपने साधनों का प्रयोग कर गाँव-गाँव पहुँच कर मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की खबरों का फॉलोअप करें. टीवी चैनल, अपनी राष्ट्रीय खबरों और चर्चाओं में बस्तर में हो रहे बलात्कार तथा मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरों के लिए ज्यादा जगह दे सकते हैं.
  8. बस्तर में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की अवस्था अत्यंत जर्जर है. ग्रामीण स्तर पर विद्यालयों और स्वास्थ्य केन्द्रों का इंतजाम अविलम्ब करने की जरूरत है.
  9. माओवादियों को नागरिकों के खिलाफ हिंसा रोकनी चाहिए.
  10. सबसे अधिक जरूरी है कि बस्तर में शांति बहाल करने के लिए राजनैतिक समाधान हेतु कदम उठाए जाएं. इसके लिए राज्य और केंद्र सरकारों को माओवादियों के साथ शांति वार्ता की पहल करनी चाहिए. सैनिकीकरण से टकराव का समाधान नहीं हो सकता. ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ और उसके अन्य रूपों को तत्काल बंद करना चाहिए और अर्धसैनिक बलों को बस्तर से अविलम्ब हटाया जाना चाहिए.

 

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